नमस्कार ,
26 जुलाई कारगिल विजय दिवस,
1999 के कारगिल युद्ध मे भारत के 527 योद्धाओको हमने खोया है , जाबाज़ सिपाही ही होते है वो हर लड़ाई मे देखते है , यहा हमारे 527 शहीद योद्धाओकी वीरगति का इतिहास एक ही शृंखला मे कह नहीं पाएंगे इस लिए आज की इस कारगिल विजय दिवस पर कुछ लड़ाकू योद्धाओका सत्यनामा प्रस्तुत कर रहे है , कारगिल युद्ध के सभी योद्धाओका इतिहास आज़ादी के अगस्त महीने मे आज़ादी की शृंखलामे प्रस्तुत करेंगे |
कारगिल युद्ध के असली शेरशाह शहीद ‘कैप्टन विक्रम बत्रा’ की गाथा, डीएवी के छात्र थे शहीद बत्रा,उनकी वीरता की गाथा अब स्कूल के सिलेबस मे भी पढ़ेंगे |
कारगिल युद्ध के हीरो शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा की वीरता के किस्से अब स्कूली छात्र किताबों में पढ़ेंगे। विक्रम बत्रा डीएवी कॉलेज सेक्टर-10 चंडीगढ़ के स्टूडेंट थे। ऐसे में अब कॉलेज की तरफ से कैप्टन बत्रा की शौर्य गाथा को स्कूल-कॉलेज सिलेबस में शामिल करने का फैसला लिया गया है
करगिल युद्ध के पहले शहीद: 22 दिन बाद जब पाक ने केप्टन सौरभ कालिया का शव लौटाया तो परिवार पहचान नहीं पाया, चेहरे पर न आंखें थीं न कान, बस आईब्रो बाकी थी
जब मौत की खबर आई तो बस चार महीने हुए थे सेना ज्वाइन किए, परिवार ने तो उन्हें यूनिफॉर्म में भी नहीं देखा था
सौरभ कालिया घुसपैठ की खबर मिलने पर अपने पांच जवानों के साथ पेट्रोलिंग पर निकले थे, उन्हें पता भी नहीं था कि वहां पाकिस्तानी सेना आ गई है
कैप्टन सौरभ कालिया, करगिल वॉर के पहले शहीद, पहले हीरो। जिनके बलिदान से करगिल युद्ध की शुरुआती इबारत लिखी गई। महज 22 साल की उम्र में 22 दिनों तक दुश्मन उन्हें बेहिसाब दर्द देता रहा। सौरभ के पिता ने पिछले 21 सालों में इंसाफ की जो अपील 500 से ज्यादा चिट्ठियों के जरिए की हैं, उन कागजों में वो सभी दर्द दर्ज हैं।
पाकिस्तानियों ने सौरभ के साथ अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उनकी आंखें तक निकाल ली और उन्हें गोली मार दी थीं। दिसंबर 1998 में आईएमए से ट्रेनिंग के बाद फरवरी 1999 में उनकी पहली पोस्टिंग करगिल में 4 जाट रेजीमेंट में हुई थी। जब मौत की खबर आई तो बमुश्किल चार महीने ही तो हुए थे सेना ज्वाइन किए।
14 मई को कैप्टन सौरभ कालिया अपने पांच जवानों के साथ बजरंग चोटी पर पहुंचे थे। उसके बाद पाकिस्तान ने उन्हें बंदी बना लिया और 22 दिन बाद उनका शव सौंपा।
तारीख 3 मई 1999, ताशी नामग्याल नाम के एक चरवाहे ने करगिल की ऊंची चोटियों पर कुछ हथियारबंद पाकिस्तानियों को देखा और इसकी जानकारी इंडियन आर्मी को आकर दी थी। 14 मई को कैप्टन कालिया पांच जवानों के साथ पेट्रोलिंग पर निकल गए। जब वे बजरंग चोटी पर पहुंचे तो उन्होंने वहां हथियारों से लैस पाकिस्तानी सैनिकों को देखा।
कैप्टन कालिया की टीम के पास न तो बहुत हथियार थे न अधिक गोला बारूद। और साथ सिर्फ पांच जवान। वे तो पेट्रोलिंग के लिए निकले थे। दूसरी तरफ पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या बहुत ज्यादा थी और गोला बारूद भी। पाकिस्तान के जवान नहीं चाहते थे कि ये लोग वापस लौटें। उन्होंने चारों तरह से कैप्टन कालिया और उनके साथियों को घेर लिया।
9 जून 1999 को सौरभ कालिया का शव उनके घर पहुंचा था। अंतिम दर्शन के लिए पूरा शहर उनके घर पहुंचा था।
कालिया और उनके साथियों ने जमकर मुकाबला किया लेकिन जब उनका एम्युनेशन खत्म हो गया तो पाकिस्तानियों ने उन्हें बंदी बना लिया। फिर जो किया उसे लिखना भी मुश्किल है। उन्होंने कैप्टन कालिया और उनके पांच सिपाही अर्जुन राम, भीका राम, भंवर लाल बगरिया, मूला राम और नरेश सिंह की हत्या कर दी और भारत को उनके शव सौंप दिए।
कैप्टन कालिया के छोटे भाई वैभव कालिया बताते हैं कि उस समय बमुश्किल बात हो पाती थी, उनकी ज्वाइनिंग को मुश्किल से तीन महीने हुए थे। हमने तो उन्हें वर्दी में भी नहीं देखा था। फोन तो तब था नहीं, सिर्फ चिट्ठी ही सहारा थी, वो भी एक महीने में पहुंचती थी। एक अखबार से हमें सौरभ के पाकिस्तानी सेना के कब्जे में होने की जानकारी मिली। लेकिन हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था इसलिए हमने लोकल आर्मी कैंटोनमेंट से पता किया।
अपनी मां विजया कालिया की गोद में कैप्टन सौरभ कालिया।
वीर शहीद सौरभ की यह आखिरी तस्वीर है, जिसमें वे अपनी मां के साथ दिख रहे हैं। हालांकि, यह तस्वीर सौरभ देख भी नहीं पाए थे।
मई 1999 की दोपहर जब सौरभ की मम्मी विजया कालिया को ये खबर मिली की उनके बेटे का शव मिल गया है तो वह ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाईं। जब कैप्टन कालिया का शव उनके घर पहुंचा तो सबसे पहले भाई वैभव ने देखा। वे बताते हैं कि उस समय हम उनकी बॉडी पहचान तक नहीं कर पा रहे थे। चेहरे पर कुछ बचा ही नहीं था। न आंखें न कान। सिर्फ आईब्रो बची थीं। उनकी आईब्रो मेरी आईब्रो जैसी थीं, इसी से हम उनके शव को पहचान पाए।
सौरभ ने आखिरी बार अपने भाई को अप्रैल में उसके बर्थडे पर फोन किया था। और 24 मई को जब सौरभ का आखिरी खत घर पहुंचा, तब वो पाकिस्तानियों के कब्जे में थे। अपनी मां को कुछ ब्लैंक चेक साइन कर के दे गए थे, ये कहकर कि मेरी सैलेरी से जितने चाहे पैसे निकाल लेना। लेकिन, सौरभ की पहली सैलरी उनकी शहादत के बाद अकाउंट में आई।
कैप्टन सौरभ कालिया अपने छोटे भाई वैभव कालिया के साथ। वैभव अभी पालमपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
शहादत के 21 साल बाद भी शायद ही कोई दिन होगा जो उनके यादों के बिना गुजरता होगा। वैभव कहते हैं कि वे आज भी हम सब के बीच हैं, उनकी मौजूदगी का हमें एहसास होता है। मां अक्सर उनके बचपन के किस्से सुनाया करती हैं, बच्चों को हम उनकी वीरता की कहानी सुनाते हैं। उन्हें और उनकी पूरी फैमिली को लोग सौरभ कालिया के नाम से जानते हैं।
वैभव बताते हैं कि वो जब कभी मुसीबत में होते हैं तो अपने भाई को याद करते हैं। और सोचता हूं, उनके साथ जो हुआ, जिन मुश्किलों का सामना उन्होंने किया उसके सामने हमारी तकलीफें कुछ भी नहीं है।
सौरभ को बचपन से ही आर्मी में जाना था। उन्होंने 12वीं के बाद एएफएमसी का एग्जाम दिया, लेकिन वे पास नहीं कर सके। ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने सीडीएस की परीक्षा दी और उनका सिलेक्शन भी हो गया। हम सभी बहुत खुश थे, मां-पापा को भी गर्व था कि उनका बेटा आर्मी में गया है।
सिलेक्शन के बाद डॉक्यूमेंट की वजह से उनकी ज्वाइनिंग में दो-तीन महीने की देर हो गई। उनके पास ट्रेनिंग के लिए अगली बैच में जाने का मौका था, लेकिन उन्होंने देरी के बाद भी उसी बैच में जाने का फैसला लिया। उन्होंने ट्रेनिंग के गैप को पाटने के लिए खूब मेहनत की और दिसंबर 1998 में आईएमए से पास आउट हुए।
वे बताते हैं कि अगर सौरभ ने उस समय ज्वाइन न कर अगले बैच में ज्वाइन किया होता तो वे जून-जुलाई में पास आउट होते। तब शायद बात कुछ और होती।
कैप्टन सौरभ कालिया का पर्स। उनको हनुमान जी बहुत पसंद थे, वे अपने साथ उनकी तस्वीर रखते थे।
इन 21 सालों में सौरभ के परिवार ने उन्हें न्याय दिलाने के लिए काफी संघर्ष किया है। ह्यूमन राइट कमीशन, भारत सरकार और सेना के न जाने कितने चक्कर काटे। उनका परिवार चाहता है कि पाकिस्तान ने जो दरिंदगी सौरभ और उसके साथ पेट्रोलिंग पर गए जवानों के साथ दिखाई उसे लेकर पाकिस्तान पर कार्रवाई हो।
मामले को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस तक ले जाया जाए। लेकिन, इसके लिए पहल सरकार को करना होगी। फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है। उनके पिता के पास सौरभ के लिए देशभर में लगाई अपीलों से जुड़ी एक फाइल है। वो कहते हैं जब तक जिंदा हूं, तब तक इंसाफ की कोशिश करता रहूंगा।
करगिल के 23 साल: पाकिस्तानियों ने ग्रेनेड फेंका, मैं जख्मी था, मौत सामने थी; तभी विक्रम बत्रा मुझे खींचकर बंकर के बाहर ले गए और बोले- अन्ना डरना नहीं, मैं आ गया हू
हम खून और बारूद से लथपथ बर्फ के टुकड़ों को तोड़कर उससे अपनी प्यास बुझा रहे थे
मैं 21 महीने दिल्ली के अस्पताल में भर्ती रहा, 8 सर्जरी हुई, उसके बाद मुझे सर्विस के लिए मेडिकली अनफिट बता दिया गया, सिर्फ 6 महीने ही आर्मी में रहा
कैप्टन नवीन नागप्पा 12 दिसंबर, 1998 को इंडियन मिलिट्री एकेडमी से ट्रेनिंग के बाद 13 जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स यूनिट में भर्ती हुए थे। सेना में पहली पोस्टिंग उन्हें जनवरी 1999 में कश्मीर में मिली। उन्हें काउंटर-इंसर्जेंसी ऑपरेशन के लिए सोपोर भेजा गया। अभी सर्विस के महज 6 महीने ही हुए थे कि उन्हें करगिल भेज दिया गया। करगिल से जुड़ी उनकी यादें और बातें पॉजिटिविटी का एक हाईडोज है। उनकी जुबानी उनकी कहानी …
बात 21 साल पहले जुलाई 1999 की है। 4 जुलाई 1999 को हमें प्वॉइंट 4875 पर तिरंगा फहराने का लक्ष्य मिला। मिशन पर जाने से पहले सभी जवान एक दूसरे के गले लग रहे थे। मैं भी बारी-बारी से सबसे मिल रहा था। जब कैप्टन विक्रम बत्रा के पास पहुंचा तो विक्रम बोले, गले लग ना यार जाने कौन सी मुलाकात आख़िरी होगी। आज भी उस पल को याद करते हुए मैं इमोशनल हो जाता हूं। आंखों के सामने वो पल, वो सबकुछ जो उस दिन हुआ, आने लगता है।
12 दिसंबर, 1998 को इंडियन मिलिट्री एकेडमी से ट्रेनिंग के बाद नागप्पा 13 जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स यूनिट में भर्ती हुए थे।
मिशन पर जाने से पहले मुझे एक टास्क दिया गया। मुझे अपने यूनिट के 120 जवानों से अनपोस्टेड लेटर लिखवाने को कहा गया ताकि अगर कोई जवान युद्ध से जिंदा वापस नहीं लौट सके तो यह खत उसके परिवार को भेजा जा सके। जवानों से जाकर ये कहना कि वो अपने परिवार के लिए, अपने माता-पिता के लिए एक चिट्ठी लिखें जिसमें वो अपना आखिरी संदेश उन तक पहुंचाना चाहते हो, बहुत ही मुश्किल टास्क था।
सभी जवानों ने अपने परिवार के लिए पत्र लिखे। उसके बाद उनसे कहा गया कि सभी अपने बटुए और आईडी कार्ड भी जमा कर दें। आईडी कार्ड लेकर मिशन पर जाना खतरनाक हो सकता था। क्योंकि, यदि कोई जवान गलती से युद्धबंदी हो जाए तो दुश्मन उसका बेजा इस्तेमाल कर सकता था।
वो ऐसा पल था जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, सिर्फ महसूस किया जा सकता है। कोई अपने बटुए से अपनी मां की फोटो निकाल कर चूम रहा था तो कोई अपनी पत्नी और बच्चों के फोटो को सीने से लगा के दुलार रहा था। किसी को पता नहीं था कि कल को क्या होने वाला है, कौन जिंदा लौटकर आएगा और कौन तिरंगे में लिपटकर घर जाएगा।
तस्वीर में कैप्टन नागप्पा अपने सीनियर कैप्टन विक्रम बत्रा की फोटो दिखाते हुए। दोनों साथ में करिगल की लड़ाई लड़े थे।
इसके बाद हमने और सभी जवानों ने एक साथ हमारे यूनिट के वॉरक्राय, दुर्गा माता की जयकारे लगाए और खुद की और परिवार की चिंता छोड़कर अपने मोर्चे पर निकल पड़े। तब हमारे मन में बस एक ही टारगेट था कि चाहे कुछ भी हो जाए प्वॉइंट 4875 पर तिरंगा फहराने के बाद ही लौटेंगे।
5 जुलाई को हम रेंगते हुए दुश्मन के बंकर तक पंहुच गए। पाकिस्तानियों को पता नहीं था कि हम उनके बंकर के पास पहुंच गए हैं। हमने अपनी टीम को डिवाइड किया और एक साथ दुश्मन के तीन बंकरों पर अटैक कर दिया, उनका बंकर तबाह कर दिया।
इस बीच मेरी नजर एक जवान पर पड़ी जो हमारा ही यूनिफॉर्म पहना हुआ था। जब मैं उसके पास पहुंचा तो देखा कि वो श्याम सिंह था। उस पल को याद करते हुए आज भी मेरे आंखों में आंसू आ जाते हैं। श्याम सिंह मेरा सहायक था, हमारी पहचान सिर्फ 6 महीने पुरानी थी, लेकिन हमारे बीच बॉन्डिंग इतनी अच्छी हो गई थी कि वह बीमार होने के बाद भी युद्ध के लिए मेरे साथ आया था।
मैं तो उसे मना कर रहा था, लेकिन वह नहीं माना। उसने कहा कि वह अच्छे वक्त में मेरे साथ था तो आज मुश्किल वक्त में मेरा साथ कैसे छोड़ सकता है। मेरे लिए वह बेहद ही मुश्किल पल था, आखों में आंसू थे लेकिन, उन्हें दबाकर रखा ताकि दूसरे जवानों का मनोबल कमजोर न हो। तब मैंने सोच लिया, अब तो बिना दुश्मनों को तबाह किए वापस नहीं लौटूंगा।
अपने परिवार के साथ कैप्टन नवीन नागप्पा।
वे अभी मिनिस्ट्री ऑफ डिफेंस में सुपरिटेंडेंट इंजीनियर हैं।
खून और बारूद से लथपथ बर्फ के टुकड़ों को तोड़कर उससे अपनी प्यास बुझा रहे थे
दोनों तरफ से पूरे दिन और रातभर हमला होता रहा। 6 जुलाई की सुबह ले.जनरल वाय के जोशी हमारे कमांडिंग ऑफिसर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल थे, उन्होंने फोन किया और जवानों का हालचाल पूछा। हमारे जवान पिछले 48 घण्टे से भूखे थे, पानी भी नहीं था हमारे पास।
जवान इस कदर भूखे और प्यासे थे कि खून और बारूद से लथपथ बर्फ के टुकड़ों को तोड़कर उसे चूसकर अपनी प्यास बुझा रहे थे। वहां और कोई ऑप्शन नहीं था हमारे पास। ऐसे मुश्किल हालात में भी हमने खाने से ज्यादा एम्युनेशन नीचे से हमारे पास पोस्ट पर भेजने को कहा।
दोनों ओर से फायरिंग चलती रही। 7 जुलाई की सुबह, पाकिस्तानियों ने मेरे बंकर के पास एक ग्रेनेड फेंक दिया। मुझे पता था कि यह चार सेकंड में फटेगा। इतने कम समय में मुझे डिसिजन लेना था। जैसे-तैसे करके मैंने उसे उठाकर दूर फेंकने की कोशिश की लेकिन वह एक पत्थर से टकराकर वापस मेरे पास ही आकर गिरा। तब तो मुझे लगा कि अब मैं जिंदा नहीं बचूंगा। मेरे आंखों के सामने मेरी पूरी फैमिली दिखाई देने लगी। मौत को बहुत करीब से देख रहा था।
करगिल वॉर 1999 के दौरान कैप्टन नागप्पा की तस्वीर, उनके साथ बीच में कैप्टन विक्रम बत्रा भी खड़े हैं जो 7 जुलाई 1999 को शहीद हो गए।
मैंने संभलने की कोशिश की, लेकिन उससे पहले ही वह ब्लास्ट हो गया। मैं बुरी तरह घायल हो गया। कुछ देर तक मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कहां हूं। उसके बाद कैप्टन बत्रा दौड़कर मेरे पास आए। वो बोले, अन्ना डरना नहीं मैं आ गया हूं। मुझे भी हिम्मत मिली कि अब जब मैं ग्रेनेड फटने से नहीं मरा तो मुझे कुछ नहीं हो सकता।
मैंने अपनी एके 47 उठाई और फायरिंग शुरू कर दी। लेकिन, बत्रा ने मुझे मना किया और कहा कि नीचे लौट जाओ। मैं नीचे नहीं जाना चाहता था, लेकिन वो मुझसे सीनियर थे, उनकी बात माननी पड़ी। उन्होंने वहां से उठाया और मुझे सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया।
करगिल युद्ध के दौरान नागप्पा बुरी तरह जख्मी हो गए थे। 21 महीने तक उन्हें अस्पताल में रहना पड़ा।
वहां से रेंगते हुए मैं नीचे पहुंचा जहां जवानों ने मुझे स्ट्रेचर पर उठाया और अस्पताल लेकर पहुंचे। मुझे वहां से श्रीनगर भेजा गया और फिर श्रीनगर से दिल्ली। उसी दिन मुझे खबर मिली कि हमने 4875 प्वॉइंट पर तिरंगा फहरा दिया है। यह मेरे लिए खुशी की बात थी लेकिन दुख इस बात का था कि मैंने अपने दोस्त विक्रम बत्रा को खो दिया था। वह इस लड़ाई में शहीद हो गए। एक दिन हम दोनों पास में ही अपने-अपने बंकर पर थे। दोनों बात कर रहे थे।
आज भी मुझे याद है जब उन्होंने अपने रिटायरमेंट प्लान के बारे में बताया था। उन्होंने कहा था- ‘मैं हिमाचल में अपना एक फार्म खोलूंगा और वहीं पर तुम भी आना।’ मैं करीब 21 महीने दिल्ली अस्पताल में भर्ती रहा। इस दौरान 8 सर्जरी हुई मेरी। उसके बाद मुझे सर्विस के लिए मेडिकली अनफिट बता दिया गया। मैं सिर्फ 6 महीने ही सर्विस में रह सका। उसके बाद मैंने 2002 में इंडियन इंजीनियरिंग सर्विसेज की परीक्षा पास की और मिनिस्ट्री ऑफ डिफेंस में बैंगलुरू के आर्मी बेस कैम्प में आज सुपरिटेंडेंट इंजीनियर हूं।
करगिल युद्ध की सबसे मजबूत कहानी: जहां वो खड़े थे, वहीं मोर्टार आकर गिरा; घायल हुए, डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था, पैर गल चुका था, बाकी शरीर पर 40 से ज्यादा घाव थे
मेजर देवेंद्र पाल सिंह उर्फ डीपी सिंह
दुश्मनों ने दो मोर्टार दागे, पहले से तो वे बच गए लेकिन दूसरा ठीक उनके बगल में 1.5 मीटर की दूरी पर आ गिरा, तेज धमाका हुआ, वे जमीन पर लेट गए।शरीर से खून के फव्वारे उड़ रहे थे, चार साथियों ने उन्हें गोलीबारी के बीच से एक सुरक्षित जगह पर पहुंचाया और ढाई घंटे बाद वो अखनूर के अस्पताल पहुंचेवो देश के पहले ब्लेड रनर बने, सोलो स्काई डाइविंग करने वाले एशिया के पहले दिव्यांग, चार बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज करा चुके हैं अपना नाम
जीवन, जीवटता, जज्बा, जुनून, और जिंदगी यह सबकुछ जिस नाम से जुड़ा है, वो है मेजर देवेंद्र पाल सिंह उर्फ डीपी सिंह का। करगिल वॉर के योद्धा डीपी सिंह ने सीडीएस परीक्षा पास करने के बाद 1995 में इंडियन मिलिट्री एकेडमी ज्वाइन की। 1999 में जब वो करगिल युद्ध लड़ रहे थे, तो उम्र महज 25 साल थी। युद्ध में लड़ते हुए वो घायल हो गए। उन्हें तो डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था। लेकिन, वो भला इतनी जल्दी हार मानने वाले कहां थे।
तारीख 13 जुलाई 1999, सुबह का समय था। डीपी सिंह जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर में सरहद पर बनी एक पोस्ट संभाले हुए थे। उनकी टीम में 30 जवान थे। सन्नाटा पसरा था यहां, गोलीबारी बंद थी। दुश्मन की पोस्ट उनकी पोस्ट से 80 मीटर की दूरी पर थी। दो दिन बाद यानी 15 जुलाई को फायरिंग फिर से शुरू हो गई। वो अपने बंकर के बाहर मोर्चा संभाले हुए थे। तभी दुश्मनों ने दो मोर्टार दागे। पहले से तो वो बच गए लेकिन दूसरा ठीक उनके बगल में 1.5 मीटर की दूरी पर आ गिरा। तेज धमाका हुआ, वो जमीन पर गिर पड़े।
वो बुरी तरह घायल हो गए। उनका एक पैर बुरी तरह जख्मी हो चुका था, बाकी शरीर पर 40 से ज्यादा घाव थे। शरीर से खून के फव्वारे उड़ रहे थे। उनके चार साथियों ने अपनी जान की परवाह किए बिना उनको वहां से गोलीबारी के बीच से एक सुरक्षित जगह पर पहुंचाया और ढाई घंटे बाद वो अखनूर के अस्पताल पहुंचे। वहां आते ही डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
डीपी सिंह ने 2009 में पहली बार मैराथन में भाग लिया। 2011 में डीपी सिंह देश के पहले ब्लेड रनर बने थे। अब तक वे 26 से ज्यादा हाफ मैराथन में भाग ले चुके हैं।
लेकिन कहते हैं न जाको राखे साइयां मार सके न कोय। किस्मत से उस दिन एक सीनियर डॉक्टर विजिट पर उसी अस्पताल में पहुंचे, जहां डीपी सिंह को लाया गया था। उन्होंने देखा कि जिसे डेड डिक्लेयर किया गया है, उसकी तो सांसें चल रहीं हैं। उन्होंने कोशिश की और डीपी बच गए।
वो बताते हैं कि तीन दिन बाद जब मुझे होश आया तो मैं अखनूर के हॉस्पिटल में था। पता चला कि मुझे गैंगरिन हो गया है। जिसके बाद मुझे वहां से उधमपुर शिफ्ट कर दिया गया। जहां डॉक्टरों ने बताया कि मेरा पैर गल चुका है और अब इसको काटने के अलावा कोई और ऑप्शन नहीं है।
मैं कुछ देर चुप रहा, फिर डॉक्टरों से कहा- प्लीज गो अहेड, इसमें कुछ भी नहीं रखा है। यह यकीन करना मुश्किल था कि मेरा एक पैर अब नहीं रहेगा, लेकिन मैंने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और खुद से वादा किया कि जीवन में क्वालिटी से कभी समझौता नहीं करूंगा।
मेजर डीपी सिंह अपनी किताब ग्रीट द मेजर स्टोरी पूर्व आर्मी चीफ जनरल वीपी सिंह को भेंट करते हुए। वीपी सिंह करगिल युद्ध के दौरान सेना प्रमुख थे।
वो कहते हैं कि यह मेरे लिए पुनर्जन्म ही था, वरना मैं तो मर चुका था, वो डॉक्टर नहीं आते तो मेरा अंतिम संस्कार कर दिया जाता। उन्हें बहुत दिनों तक यह भी पता नहीं चला कि उनकी जान बचाने वाला डॉक्टर कौन है? कहां है? 20 साल बाद डीपी उस डॉक्टर से मिल पाए। डॉक्टर का नाम कर्नल राजिंदर सिंह है, जो अब रिटायर होने के बाद कैलिफोर्निया में रहते हैं।
मेजर सिंह करीब एक साल तक अस्पताल में रहे। इस दौरान एक के बाद एक कई सर्जरी हुईं। दाहिना पैर पहले ही काट दिया गया गया था। उनके इंटेस्टाइन के कुछ हिस्से भी हटा दिए थे। उनकी सुनने की ताकत भी कमजोर पड़ गई थी। शरीर में 50 स्प्लिन्टर्स लगे थे।
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत को दो लाख रुपए का चेक सौंपते मेजर डीपी सिंह। यह राशि उन्होंने इंडियन आर्मी के वेलफेयर फंड में डोनेट की।
15 जुलाई को डेथ एनीवर्सरी और पुनर्जन्म दोनों मनाते हैं
डीपी सिंह की बर्थडे लिस्ट में एक नहीं, दो नहीं बल्कि तीन तारीखें शामिल हैं। एक 13 जनवरी जिस दिन उनका जन्म हुआ था। दूसरी तारीख 13 सितबंर जो दस्तावेजों में दर्ज है और तीसरी तारीख 15 जुलाई जो उनके लिए बेहद खास है और उसे सेलिब्रेट करना वो कभी नहीं भूलते। आखिर उस दिन वो मौत से लौट आए थे।
मजबूत इरादों वाले डीपी सिंह ने 2009 में पहली बार मैराथन में भाग लिया। 2011 में डीपी सिंह देश के पहले ब्लेड रनर बने थे। अब तक वो 26 से ज्यादा हाफ मैराथन में भाग ले चुके हैं। हाल ही में उन्होंने अपने 42वें जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए 42 किलोमीटर की फुल मैराथन में भाग लिया। इनमें तीन बार तो उन्होंने हाई एल्टीट्यूड पर हुई दौड़ में भाग लिया है। वो सांगला, लेह और करगिल में हुई मैराथन में दौड़ चुके हैं।
चार बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज करा चुके हैं अपना नाम
डीपी सिंह चार बार लिम्का बुक ऑफ ऑल रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं। 2016 में लिम्का बुक ऑफ ऑल रिकॉर्ड्स ने उन्हें पीपल ऑफ द ईयर डिक्लेयर किया था। इसके साथ ही साल 2018 में भारत सरकार ने डीपी सिंह को नेशनल रोल मॉडल के अवॉर्ड से सम्मानित किया था।
इंडियन आर्मी ब्रांड एंबेसडर ईयर ऑफ द डिसेबल्ड 2018 भी रह चुके हैं। उन्हें केविनकेयर एबिलिटी अवॉर्ड भी मिल चुका है। 100% डिसेबल होने के बाद भी डीपी सिंह ने अपने ऑर्गेन्स और बोन मैरो डोनेट करने का प्रण लिया है। उन्होंने नेशनल अवॉर्ड और केविनकेयर अवॉर्ड के दो लाख रुपए इंडियन आर्मी के वेलफेयर फंड में डोनेट कर दिए।
करगिल युद्ध के नायक रहे मेजर डीपी सिंह ने नासिक में पहली बार सफल स्काई डाइविंग की।
सोलो स्काई डाइविंग करने वाले एशिया के पहले दिव्यांग
मेजर डीपी सिंह ने पिछले साल नासिक में पहली बार सफल स्काई डाइविंग की। ऐसा करने वाले वो एशिया के पहले दिव्यांग हैं। उन्होंने यह साबित कर दिया है कि दिव्यांगता उनके साहस और मजबूत इरादों को कमजोर नहीं कर सकती। डीपी सिंह इसका श्रेय सेना और उसकी ट्रेनिंग को देते हैं।
द चैलेंजिंग वन्स से दिव्यांगों के जीवन में भर रहे उड़ान
साल 2011 में डीपी सिंह ने एक एनजीओ द चैलेंजिंग वन्स की स्थापना की, ताकि उनकी तरह शारीरिक रूप से दिव्यांग लोगों में हिम्मत भरकर उन्हें जीवन जीने का जज्बा सिखा पाएं। अभी करीब 2000 लोग इससे जुड़े हैं। इनमें से 1000 से ज्यादा तो ऐसे हैं जिन्होंने नेशनल लेवल स्पोर्ट्स इवेंट अपने झंडे गाड़े हैं। जिसमें पैरा बैडमिंटन गोल्ड विनर मानसी जोशी भी शामिल हैं।
कहानी टाइगर हिल जीतने वाले की: मेरे सभी साथी शहीद हो गए थे, पाकिस्तानियों को लगा मैं भी मर चुका हूं, उन्होंने मेरे पैरों पर गोली मारी, फिर सीने पर, जेब में सिक्के रखे थे, उसने बचा लिया
जब 14 अगस्त को घोषणा हुई तो टीवी से पता चला कि मरणोपरांत 18 ग्रेनेडियर यूनिट के जवान योगेंद्र सिंह यादव को परमवीर चक्र मिला है, फिर आर्मी चीफ ने जब मुझे बधाई दी तो पता चला अवार्ड मुझे मिला है योगेंद्र आईआईटी दिल्ली, कानपुर, आईआईटी बॉम्बे, आईआईएम इंदौर और आईआईएम अहमदाबाद बतौर मोटिवेशनल स्पीकर जा चुके हैं, इसके साथ ही वे देशभर के 500 स्कूलों में स्पीच दे चुके हैं
महज 19 साल की उम्र और ढाई साल का सर्विस एक्सपीरियंस। न उम्र का तजुर्बा न सर्विस का ज्यादा अनुभव। सामने 17 हजार फीट ऊंची टाइगर हिल पर तिरंगा फहराने का लक्ष्य। बुलंदशहर के रहने वाले ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव ने 17 गोलियां खाई फिर भी हार नहीं मानी। आज 5 जुलाई है, 21 साल पहले इसी दिन योगेंद्र यादव ने टाइगर हिल फतह की थी, उन्हें इस बहादुरी के लिए परमवीर चक्र से नवाजा गया। इस यादगार दिन पर टाइगर हिल पर कब्जे की कहानी उन्हीं की जुबानी, पढ़िए…
टाइगर हिल करीब 17 हजार फीट की ऊंचाई पर थी। इस पर कब्जे के लिए 18 ग्रेनेडियर यूनिट को जिम्मेदारी दी गई। जिसकी कमान लेफ्टिनेंट खुशहाल सिंह को सौंपी गई। हम 21 जवान थे। 2 जुलाई की रात हमने चढ़ना शुरू किया। हम रात में चढ़ते थे और पूरे दिन पत्थरों में छुपे रहते थे। क्योंकि दिन में दुश्मन हमें आसानी से देख सकते थे और हम पर अटैक कर सकते थे। जब हमने चढ़ना शुरू किया तो एक के बाद एक ऊंची चोटी दिखती जा रही थी। कई बार हमें लगता था कि यही टाइगर हिल है, लेकिन तभी उससे बड़ी चोटी दिखाई पड़ती थी। इस तरह हम भूखे-प्यासे रस्सियों के सहारे एक दूसरे का हाथ पकड़कर आगे बढ़ रहे थे।
जब पाकिस्तान की आर्मी को इसकी भनक लगी कि इंडियन आर्मी ऊपर चढ़ गई है तो उन्होंने दोनों तरफ से फायर खोल दिए। जमकर फायरिंग की। इसी बीच हम सात बंदे ऊपर चढ़ गए। बाकी के जवान नीचे रह गए। फायरिंग इतनी जबरदस्त हो रही थी कि जो ऊपर थे वे ऊपर रह गए और जो नीचे थे वे नीचे ही रह गए।
योगेंद्र कहते हैं कि हम 21 जवान थे, रात में चढ़ते थे और पूरे दिन पत्थरों में छुपे रहते थे, क्योंकि दिन में दुश्मन हमें आसानी से देख सकते थे।
4 जुलाई की रात जब हम कुछ और ऊपर पहुंचे तो सामने दुश्मन के दो बंकर थे। हम सातों जवानों ने एक साथ फायर खोल दिया। इस फायरिंग में पाकिस्तान के 4 जवान मारे गए। इसके बाद हम आगे बढ़े तो वहां से टाइगर हिल 50-60 मीटर की दूरी पर था। पाकिस्तान की फौज ने देख लिया कि इंडियन आर्मी यहां तक आ गई है। उसके बाद उन्होंने फायरिंग और गोलाबारी शुरू कर दी। फायरिंग ऐसी थी कि वहां से एक कदम आगे बढ़ने पर भी मौत थी और पीछे हटने पर भी हमारी जान जाती। मरना निश्चित था।
योगेंद्र कहते हैं कि भारत मां के किसी भी सपूत ने पीठ में गोली नहीं खाई है। रक्त का एक कतरा भी बचता है तो वह पीछे नहीं मुड़ता है। हमने सोच रखा था कि मरना ही तो है। लेकिन उसके पहले दुश्मन को मारकर मरेंगे। जितना नुकसान पंहुचा सकते हैं पहुंचाएंगे।
तब हमारे कमांडर थे हवलदार मदन, उन्होंने बोला कि दौड़कर इन बंकरों में घुस जाओ। हमने बोला सर माइन लगा रखी होगी तो उन्होंने बोला कि पहले माइन से मर जाओ। हमारी फौज के अंदर डिसिप्लिन है, जो आर्डर मिल गया उसे मानना ही था।
5 जुलाई की सुबह हम उनके मोर्चे में घुस गए। वहां पांच घंटे हमने लगातार लड़ाई लड़ी। दोनों तरफ से जमकर फायरिंग हुई। धीरे- धीरे हमारे एम्यूनेशन खत्म हो रहे थे। हमारे बाकी जवान करीब 25-30 फीट नीचे थे। हमने उनसे कहा कि ऊपर नहीं चढ़ सकते तो एम्यूनेशन तो फेंको। उन्होंने रुमाल में बांधकर एम्यूनेशन फेंके। हम इतने मजबूर थे कि एक कदम आगे पड़े एम्यूनेशन को उठा नहीं सकते थे। क्योंकि ऊपर से दुश्मन देख रहे थे।
दुश्मनों की 17 गोलिया खाकर भी चेहरे पर मुस्कान है , यह है भारत के वीर जवान
योगेंद्र यादव को करगिल युद्ध में 17 गोलियां लगी थीं। हाथ में गोली लगने से हड्डियां अलग हो गई थीं।
जब हमारे पास एम्यूनेशन खत्म होने लगे तो हमने प्लान किया कि अब हम फायर नहीं करेंगे और पत्थरों में छुप गए। उधर से दुश्मन लगातार फायर कर रहे थे। करीब आधे घंटे बाद पाकिस्तान के 10-12 जवान ये जानने के लिए बाहर निकले कि हिंदुस्तान के सैनिक कितने हैं, सभी मारे गए या कुछ बचे हैं।
हमने पहले से प्लान और आपस में कोऑर्डिनेशन बनाया हुआ था। वे जैसे ही बाहर निकले हमने एक साथ अटैक कर दिया। एक दो को छोड़कर बाकी सभी दुश्मन मारे गए। हमने वहां पड़े पाक के एम्यूनेशन उठा लिए। अब हमारे पास एम्यूनेशन भी थे और हथियार भी। पाक के जो जवान बच गए उन्होंने जाकर अपनी टीम को खबर कर दी। इसके बाद आधे घंटे के अंदर पाकिस्तान के 30-35 जवानों ने हमपर अटैक कर दिया। फायरिंग इतनी जबरदस्त थी कि करीब 20 मिनट तक हमें सिर उठाने नहीं दिया। उनके पास जितने हेवी हथियार थे, सबका इस्तेमाल किया।
इसके बाद हमने फिर से अपनी फायरिंग रोक दी और उनके नजदीक पहुंचने का इंतजार करने लगे। हम नहीं चाहते थे कि उन्हें हमारी लोकेशन पता चले। इसी बीच उन्हें हमारे एलए मजी राइफल की लाइट दिख गई। उन्होंने ऊपर से उसपर आरपीजी (ग्रेनेड) दाग दिया। हमारा एलएमजी डैमेज हो गया। इसके बाद वे ऊपर से पत्थरों से हमला करने लगे। गोले फेंकने लगे। इसमें हमारे साथी जवान घायल हो गए, किसी का पैर कट गया तो किसी की उंगली कट गई। उनसे कहा गया कि अब फायर तो कर नहीं सकते तो नीचे चले जाओ लेकिन, उन्होंने नीचे जाने से इंकार कर दिया। यही भारतीय फौज की खासियत है, वह कभी पीछे नहीं मुड़ती।
सूबेदार मेजर योगेंद्र यादव, कैप्टन बाना सिंह और सूबेदार संजय कुमार। तीनों परमवीर चक्र सम्मान से नवाजे जा चुके हैं।
उधर पाक के जवान लगातार फायरिंग कर रहे थे, ग्रेनेड फेंक रहे थे। वे बेहद करीब आ गए और हमें चारों तरफ से घेरकर अटैक कर दिया। पल भर में सबकुछ खत्म हो गया, हमारे सभी साथी शहीद हो गए। उनकी नजर में तो मैं भी मर चुका था। लेकिन मैं जिंदा था, बेहोश पड़ा था। उनके कमांडर ने कहा कि जरा चेक करो इनमें से कोई जिंदा तो नहीं है। वे आकर एक – एक को गोलियां मारने लगे। उन्होंने मुझे भी पैर और हाथ में गोली मारी, लेकिन मैंने आह तक नहीं किया, चुपचाप दर्द सहता रहा।
मुझे यह विश्वास था कि अगर मेरे सीने में गोली नहीं मारी तो मैं मरूंगा नहीं। मैं चाहता था कि कैसे भी करके अपने साथियों को इसकी जानकारी दे दूं कि ये लोग हमारे नीचे की पोस्ट पर अटैक करने वाले हैं। कुछ देर बाद उनका एक जवान हमारे हथियार उठाने आया। उसने मेरे सीने की तरफ बंदूक तान दी, तब तो मुझे लगा कि अब मैं बचूंगा नहीं। लेकिन भारत मां की कृपा थी कि उसकी गोली आकर मेरी पॉकेट पर लगी जिसमें मैंने कुछ सिक्के रखे थे, शायद उससे मैं बच गया।
योगेंद्र को उनकी बहादुरी के लिए 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने परमवीर चक्र से सम्मानित किया था।
जब वो जवान आगे बढ़ा तो मैंने हिम्मत करके अपने पॉकेट से एक ग्रेनेड निकाला और उस जवान के ऊपर फेंक दिया। उस धमाके के बाद पाकिस्तान के जवान पूरी तरह हिल गए। इसके बाद मैंने दो तीन जगह से फायरिंग करना शुरू कर दिया। उन्हें लगा कि शायद सपोर्ट के लिए भारत की फौज आ गई है। और वे भाग खड़े हुए।
उसके बाद मैं अपने साथियों के पास गया। कोई भी जिंदा नहीं बचा था। बहुत देर तक रोया। हाथ में गोली लगने से हड्डियां टूट गई थीं, असहनीय दर्द हो रहा था। मन कर रहा था कि हाथ को तोड़कर फेंक दूं। तोड़ने की कोशिश भी की लेकिन हाथ नहीं टूटा। फिर पीछे बेल्ट से हाथ को फंसा लिया। ढाई साल की नौकरी और 19 साल की उम्र। न तो उम्र का कोई तजुर्बा था न सर्विस का ज्यादा अनुभव। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ थी। यह भी नहीं पता था कि भारत किधर है और पाकिस्तान किधर है।
फिर एक नाले से लुढ़कते हुए नीचे पहुंचा। वहां से मेरे साथी आए और मुझे उठाकर ले गए। किसी को उम्मीद नहीं थी कि ये जिंदा रहेगा। उसके बाद मुझे मेरे सीओ कर्नल खुशहाल सिंह ठाकुर के पास ले जाया गया। मैंने उन्हें ऊपर के हालात के बारे में जानकारी दी। उसके बाद मुझे पता नहीं चला मैं कहां हूं। जब होश आया तो पता चला कि श्रीनगर आर्मी अस्पताल में हूं और वही मुझे जानकारी मिली कि हमारी टीम ने टाइगर हिल पर तिरंगा फहरा दिया है।
सबसे कम उम्र में परमवीर चक्र सम्मान
सूबेदार मेजर योगेंद्र यादव को 15 अगस्त को 2000 को सेना के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया। वे सबसे कम उम्र में यह सम्मान पाने वाले सैनिक हैं। वे बताते हैं कि जब 14 अगस्त को इसकी घोषणा हुई तो टीवी से जानकारी मिली कि मरणोपरांत 18 ग्रेनेडियर यूनिट के जवान योगेंद्र सिंह यादव को परमवीर चक्र मिला है। मेरे लिए यह गर्व की बात थी कि मेरे यूनिट के एक जवान को यह सम्मान मिलने वाला है। फिर मुझे बताया गया कि सुबह सेना प्रमुख मुझसे मिलने वाले हैं, मुझे पता नहीं था कि वो क्यों मिलने आ रहे हैं। जब वे आए तो उन्होंने मुझे बधाई दी। तब मुझे यह पता चला कि यह अवॉर्ड मुझे मिला है। दरसल मेरी यूनिट में मेरे ही नाम का एक और जवान था। इसलिए ये कंफ्यूजन हुआ।
योगेंद्र यादव देश के यूथ आइकॉन हैं, वे अक्सर स्कूल-कॉलेज में जाकर युवाओं को मोटिवेट करने का काम करते हैं।
तीन आईआईटी सहित 500 से ज्यादा संस्थानों में दे चुके हैं स्पीच
योगेंद्र यादव कहते हैं कि यह सम्मान पूरे देश का है। हमारी ताकत 130 करोड़ भारतीय है। सम्मान मिलने के बाद मेरी एक पहचान जरूर बनी लेकिन मेरे लिए तो यह मेरा दायित्व है, मेरी ड्यूटी है। योगेंद्र यादव पूरे देश के लिए हीरो हैं, आइकॉन हैं। उन्हें कई सम्मान मिल चुके हैं।
वे बताते हैं कि वे अक्सर युवाओं को मोटिवेट करने के लिए देश के बड़े बड़े संस्थानों में जाते रहते हैं। वे आईआईटी दिल्ली, कानपुर, आईआईटी बॉम्बे, आईआईएम इंदौर और आईआईएम अहमदाबाद बतौर मोटिवेशनल स्पीकर जा चुके हैं। इसके साथ ही योगेंद्र यादव देशभर के 500 स्कूलों में स्पीच दे चुके हैं। यूथ के लिए काम करने वाले कई एनजीओ से भी वे जुड़े हैं। अभी योगेंद्र यादव बतौर सूबेदार मेजर बरेली में पोस्टेड हैं। वे तीन भाई हैं, उनका एक और भाई सेना में है। उनके दो बेटे हैं जो अभी पढ़ाई कर रहे हैं
करगिल के 23 साल: एक के बाद एक हमले करते गए, हर दिन, और सब के सब युवा, जवान भी युवा थे और उनके लीडर्स भी युवा ऑफिसर्स थे, वो युद्ध था जिसे युवाओं ने लड़ा
कारगिल विजय दिवस पर ‘जनरल सतीस दुआ की चिट्ठी’
सेल्यूट उन्हें भी जो जिंदा रहे, हमें अपने साथी की शहादत की कहानी सुनाने को, वो भी कम बहादुर नहीं थे इसलिए उन्हें भी सैल्यूट
वहां युद्ध कंपनी और प्लाटून के बीच हो रहा था और उसका जिम्मा संभाले हमारे युवा फौजी ही थे जिनके बूते देश बच गया
करगिल विजय दिवस पर मैं उन तमाम वीरों को सैल्यूट करना चाहता हूं, जिन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया। और उन्हें भी जो उन वीरों को वापस लेकर आए। करगिल ऐसा युद्ध था जो युवाओं ने लड़ा अपने युवा लीडर्स के बूते। वहां युद्ध कंपनी और प्लाटून के बीच हो रहा था।
और उसका जिम्मा संभाले हमारे युवा फौजी ही थे जिनके बूते देश बच गया, जिन्होंने दुश्मन को करगिल से खदेड़कर हम सबको गौरवान्वित किया। मैं तब कर्नल था और जम्मू कश्मीर में लाइन ऑफ कंट्रोल पर ब्रेवेस्ट ऑफ द ब्रेव बटालियन को कमांड कर रहा था। नियंत्रण रेखा पर हर जगह गोलीबारी चल रही थी।
घुसपैठ की तमाम कोशिशें भीं। जिसके चलते कई सारे ऑपरेशन चलाए जा रहे थे। लेकिन, वहां करगिल में पूरा का पूरा युद्ध जारी था। हर दिन हम ऑपरेशन से जुड़ी जानकारी का इंतजार करते थे। खबर के लिए सिटरेप्स यानी सिचुएशनल रिपोर्ट सुनते। हर दिन खबर मिलती कि एक और चोटी पर हमने कब्जा कर लिया है, एक और पहाड़ी अब सुरक्षित है।
रिटायर्ड ले. जनरल सतीश दुआ करगिल के समय कर्नल थे और जम्मू कश्मीर में लाइन ऑफ कंट्रोल पर ब्रेवेस्ट ऑफ द ब्रेव बटालियन को कमांड कर रहे थे।
वो बंजर पहाड़ियां थीं जो 12 हजार से लेकर 20 हजार फीट की ऊंचाई पर थीं। मैं करगिल में पहले तैनात रह चुका था, समझ सकता था कि उस इलाके में जहां ऑक्सीजन की कमी से इंसान हांफता है, वहां ऑपरेट करना कितना मुश्किल होगा। उस ऊंची चोटी पर हमला करना जहां माउंटेनियरिंग एक्सपिडिशन पर रस्सियों के सहारे चढ़ाई करते हैं, कितना चुनौतीपूर्ण होगा।
फिर भी भारतीय जांबाजों का कोई मुकाबला नहीं। एक के बाद एक हमले करते गए, हर दिन, और सब के सब युवा, युवा जवान जिनके लीडर्स भी युवा ऑफिसर्स थे। वो युद्ध था जिसे युवाओं ने लड़ा, सबकी उम्र 20-30 के बीच रही होगी।
प्वाइंट 5140 को दुश्मन के कब्जे से छुड़ा लेने के बाद कैप्टन विक्रम बत्रा ने कहा, ये दिल मांगे मोर और वो सारे देश के युवाओं के बीच मशहूर हो गया, उनका नारा बन गया। फिर वो प्वाइंट 4875 को जीतने निकले और एक जख्मी ऑफिसर को बचाते अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी। वो यूं भी पहले कह चुके थे, मैं या तो तिरंगा फहराकर आऊंगा या फिर उसी में लिपट कर।
कैप्टन विक्रम बत्रा 7 जुलाई 1999 को शहीद हुए। उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव के हिस्से है सबसे कम उम्र में युद्ध का सर्वोच्च पदक, परमवीर चक्र। उन्हें जब उस अदम्य साहस के लिए ये पदक मिला तो वो बस 19 बरस के थे। टाइगर हिल पर हमले के वक्त दुश्मन ने उन पर कई बार हमला किया, लेकिन उन्होंने अपने हाथ को बेल्ट से बांधा और पैर में बंडाना लपेट रेंगकर दुश्मन का बंकर तबाह कर दिया। आमने-सामने की लड़ाई में चार दुश्मनों को मार गिराया। और अपनी प्लाटून की टाइगर हिल जीतने में मदद की। उन्हें 15 गोलियां लगीं और वो उस हमले में जीवित बचे इकलौते गवाह थे।
कैप्टन मनोज पांडे ने खालूबार हिल के जुबार टॉप पर हुए हमले में सर्वोच्च बलिदान दिया। वो कहते थे, यदि मौत पहले आई और मैं अपने खून का कर्ज नहीं चुका पाया तो कसम खाता हूं मैं मौत को मार डालूंगा।
कैप्टन विजयंत थापर ने तोलोलिंग फतह पर निकलने से पहले अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी। शायद उन्हें आभास हो गया था। उन्होंने लिखा था, ‘जब तक आपको ये खत मिलेगा मैं आपको आसमान से देख रहा होऊंगा और अप्सराएं मेरी खातिरदारी कर रही होंगी। मुझे कोई पछतावा नहीं है। और अगर में फिर से इंसान पैदा होता हूं तो मैं सेना में जाऊंगा और अपने देश के लिए लडूंगा। हो सके तो आप वो जगह आकर देखना जहां भारतीय सेना ने लड़ाई लड़ी।’
कैप्टन विजयंत थापर 29 जून 1999 को शहीद हुए थे। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र दिया गया था।
ऐसे कई हैं, बहुत सारे हीरो। कैप्टन अनुज नायर, मेजर राजेश अधिकारी, मेजर विवेक गुप्ता, राइफलमैन संजय कुमार, कैप्टन नौंगरू और बहुत से। सबका नाम यहां लिखना मुमकिन नहीं। अपनी जिंदगी के बमुश्किल 20 बरस देखने वाले वो तमाम युवा जिन्होंने युद्ध लड़ा। भारतीय सेना के अफसरों की शहादत इसलिए सबसे ज्यादा होती है क्योंकि वो हर ऑपरेशन में सबसे आगे होते हैं।
जब भी मैं सर्वोच्च बलिदान देनेवाले इन योद्धाओं के माता-पिता से मिलता हूं तो बातों-बातों में जो एक बात हर जगह पता चलती है वो ये कि उनके बेटे बहादुर थे। वो इसलिए क्योंकि उनके परिवार और माता-पिता ने उन्हें ये संस्कार दिए थे। हर परिवार और परिवार के हर सदस्य के भीतर उन्हें लेकर गर्व है अफसोस नहीं। यही तो है जो हमारे देश को महान बनाता है।
भारत ने 527 योद्धाओं को करगिल युद्ध में खोया है। हम सैल्यूट करते हुए न सिर्फ उन सभी को जिन्होंने बलिदान दिया बल्कि उन्हें भी जो उन्हें लेकर वापस आए। वो भी कम बहादुर नहीं थे जो जिंदा रहे हमें अपने साथी की शहादत की कहानी सुनाने को। हमारा सलाम उन्हें जिन्हें वीरता पदक से नवाजा गया लेकिन उन्हें भी सलाम जो गुमनाम रहे या जिनके हिस्से मेडल नहीं आया। वो किसी भी लिहाज से कम बहादुर नहीं थे।
जनरल सतीस दुआ
कैप्टन मनोज पाण्डेय जो कहते थे, मेरे रास्ते में मौत आई तो उसे भी मार दूंगा. पढ़िए इस वीर सपूत की पूरी कहानी.
सर्दियों में भारी बर्फबारी की वजह से भारत और पाकिस्तान की सेनाएं ऊंचे पेट्रोलिंग प्वाइंट से नीचे उतर आती थीं. लेकिन पाकिस्तान ने धोखा दिया और 1998-99 की सर्दियों में घुसपैठियों की शक्ल में पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा में घुस आए. सर्दियों में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने ऊंचे पहाड़ी इलाकों में अपने बंकर बना लिए. उन्होंने ऐसी जगहों को अपने कब्जे में ले लिया, जहां से वह भारतीय सैनिकों की आवाजाही को आसानी से देख सकते थे. भारतीय सेना को इसका पता चला तो ऑपरेशन विजय शुरू किया गया. कारिगल की पहाड़ियों को घुसपैठियों से खाली कराने के लिए चलाए गए ऑपरेशन विजय में देश के वीर सपूतों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. ऐसे ही एक वीर योद्धा थे कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय (Captain Manoj Kumar Pandey). आज कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी जानते हैं.
कौन थे कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय
कैप्टन मनोज कुमार पांण्डेय (Captain Manoj Kumar Pandey) गोरखा राइफल्स की पहला बटालियन के वीर योद्धा थे. एक वीर योद्धा को उसकी बटालियन और उसके किए गए कामों के जरिए ही बेहतर पहचाना जाता है. पाकिस्तानी घुसपैठियों को उनके बिलों से बाहर निकालने और चुन-चुनकर मारने के अभियान में शामिल होने के लिए कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय भी 1999 के कारगिल युद्ध में शामिल हुए. कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का पराक्रम देखकर पाकिस्तानी घुसपैठियों को 11 जून 1999 को बटालिक सेक्टर छोड़कर भागना पड़ा. उन्हीं के नेतृत्व में 3 जुलाई 1999 की तड़के भारतीय सेना ने जौबर टॉप और खालूबार टॉप पर वापस कब्जा किया. खालूबार टॉप पर कब्जे की जंग में कैप्टन मनोज पाण्डेय बुरी तरह घायल हो गए और यहां पहाड़ी की चोटी पर ही उन्होंने आखिरी सांस ली. उन्हें भारत सरकार की तरफ से मरणोपरांत परवीर चक्र से सम्मानित किया गया.
‘अगर कोई आदमी कहता है कि वह मरने से नहीं डरता है, तो वह झूठ बोल रहा है या फिर वह गोरखा है…’
8 comments
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