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शिव+शिवा=विवाह | शिव और शिवा पति-पत्नी का हिमालय जीवन और शिव द्वारा पत्नी शिवा का त्याग |

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नमस्कार  ,

शिव ने पत्नी शिवा का त्याग क्यो किया था ?

          आप सब सोचते होंगे कि शिव + शिवा= विवाह ? जी हा, सही सुना आपने अभी तक शिव शंकर,भोले नाथ,भोले बाबा,बम बम भोले,हम यही सुनते आए है येही भजते आए है | यह भी सही सुना है हमने,यह भी सही है शिव ही सर्वस्व है, शिव ही परमात्मा है | आज मैं आपको भोले शिव के साथ शिवा का परिचय कराता हूं, क्योंकि अभी तक हम शिव शंकर को, भोले बाबा कोही  शिवा.. शिवा.. शिवा.. शिवा.. करते-करते रटते आए भजते आए, भजन करते आए, भजन करते है , सही है मगर दोनों ही अलग है | शिव और शिवा अलग रूप है | शिवा ही परमात्मा शिव की पत्नी है |अब यह अलग रूप कैसे हो सकता है ? यह हमें सदियों से हमारे वेद पुराणों में बताया गया है मगर हम संपूर्ण सत्य जाननेकी कोशिश नहीं करते है , या तो संपूर्ण सत्य हमारे सामने आता नहीं | तो चलिये आज मैं शिव और शिवा के पावन विवाह को सत्य की शोध में पहली बार आपके सामने ला रहा हूं 

     ब्रह्मा विष्णु और महेश, उनमें से ब्रह्मा जी से मैं शुरू करूंगा पूर्वकाल में ब्रह्मा जी एक बार जब मोह में पड़ गए और भगवान शंकर ने उनका उपहास किया तब ब्रह्माजी को बड़ा शौक हुआ | वस्तुतः शिव की माया ने उसे मोह लिया था | इसीलिए ब्रह्मा जी भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या करने लगे , ब्रह्मा जी उस स्थान पर गए जहां दक्षराज मुनि उपस्थित थे वहीं रति साथ कामदेव भी थे उस समय ब्रह्मा जी ने बड़ी प्रसन्नता से दक्ष तथा दूसरे पुत्रों को संबोधित करके वार्तालाप आरंभ किया,उस वार्तालाप के समय ब्रह्मा जी शिव की माया से पूर्णतय मोहित थे, तब ब्रह्माजी ने पुत्रों से कहा तुम्हें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे महादेव जी किसी अतिसुन्दर कांतिवाली स्त्रीकों पत्नि के रूप मे पाणीग्रहण करें,स्वीकार करे , इसके बाद ब्रह्मा जी ने भगवान शिव को मोहित करने का भार रति सहित कामदेव को सौंपा ,कामदेव ने ब्रह्मा जी की आज्ञा मानकर कहा प्रभु, सुंदर स्त्री ही मेरा अस्त्र है, अतः शिवजी को मोहित करने के लिए किसी नारी की सृष्टि कीजिए, यह सुनकर ब्रह्मा जी चिंता में पड़ गए और लंबी सांस खींचने लगे, ब्रह्मा जी के उस निस्वास से राशि राशि पुष्पों से विभूषित वसंत का प्रादुर्भाव हुआ, बसंत और मलियानिल यह दोनों मदन के सहायक हुए, इनके साथ जाकर कामदेव ने शिवजी को मोहने की बारंबार चेष्टा की परंतु उसे सफलता ना मिली ,तब वह निराश होकर लौट आए, तब उसकी बात सुनकर ब्रह्मा जी को बड़ा दुख हुआ ,उस समय ब्रह्मा जी से मुख से जो निश्वास वायु चली उससे मार गणों की उत्पत्ति हुई उन्हें मदन की सहायता के लिए आदेश देकर ब्रह्माजी पुनः उन सबको को शिवजी के पास भेजा | परंतु महान प्रयत्न करने पर भी भगवान शिव को भोले नाथ को मोह में न डाल सके |

            काम सपरिवार लौट आया ,और ब्रह्मा जी को प्रणाम करके अपने स्थान को चले गए | उसके चले जाने पर ब्रह्माजी मन ही मन सोचने लगे कि निर्विकार तथा मन को वश में रखने वाले योगपरायण भगवान शिव किसी स्त्री को अपनी सहधर्मिणि  बनाना कैसे स्वीकार करेंगे ? यही सोचते-सोचते ब्रह्मा जी ने भक्ति भाव से उन भगवान श्री हरी श्री विष्णु का स्मरण किया जो साक्षात शिव स्वरूप तथा ब्रह्माजी के शरीर के जन्मदाता थे, ब्रह्माजी ने दिन वचनों से युक्त शुभ स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति की ,स्तुति को सुनकर भगवान शीध्रही सामने प्रकट हो गए | उनके चार भुजाएं शोभा पाती थी,नेत्र प्रफूल कमल के समान सुंदर थे | उन्होंने हाथों में शंख ,चक्र, गदा,और पद्म ले रखे थे | उनके श्याम शरीर पर पितांबर की बड़ी शोभा हो रही थी | वह भगवान श्री हरी श्री विष्णु भक्त प्रिय है,भक्त  बहुत प्यारे लगते हैं | सबके उत्तम शरणदाता उन श्रीहरि को उस रूप में देखकर ब्रह्माजी के नेत्रों से प्रेमाश्रुओकी धारा बह चली और ब्रह्माजी गदगद कंठ से बारंबार उनकी स्तुति करने लगे, ब्रह्मा जी के स्त्रोत को सुनकर अपने भक्तों के दुख दूर करने वाले भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए ,और शरण में आए हुए ब्रह्मा से बोले  महाप्राज्ञ .. विधाता, तुम धन्य हो, बताओ तुमने किस लिए आज मेरा स्मरण किया है | और किस निमित्त से स्तुति की जा रही है? तुम पर कौन सा महान दुखा पड़ा है? उसे मेरे सामने इस समय कहो,मैं वह सारा दुख मिटा दूंगा ,इस विषय में कोई संदेह या अन्यथा कोई विचार नहीं करना चाहिए | तब ब्रह्माजी भावुक हो गए और कहा | केशव, यदि भगवान शिव किसी तरह पत्नी को ग्रहण कर ले तो मैं सुखी हो जाऊंगा, मेरे अंतःकरण का सारा दुख दूर हो जाएगा,इसलिए आपकी शरण में आया हूं | ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंस पड़े |और ब्रह्माजी का हर्ष बढ़ाते हुए ब्रह्माजी से सिद्ध ही बोले | विधाता ,तुम मेरा वचन सुनो ,यह तुम्हारे भ्रम का निवारण करने वाला है |

       मेरा वचन ही वेद शास्त्र आदि का वास्तविक सिद्धांत है | शिव ही सबके करता भरता पालक और हरता सहायक है | वही परात्पर है | परमब्रह्म, परेश, निर्गुण,नित्य, अनिर्देश्य , निर्विकार,अद्रितिय ,अच्युत, सब का अंत करने वाले, स्वामी और सर्वव्यापी परमात्मा | एवं परमेश्वर है | सृष्टि, पालन और संहार के करता ,तीनों गुणों को आश्रय देने वाले, व्यापक, ब्रह्मा विष्णु और महेश नाम से प्रसिद्ध, रजोगुण, सत्वगुण, तथा तमोगुण से परे, मायासेही भेदयुक्त प्रतीत होने वाले,निरीह,मायारहित,मायाकेस्वामीया प्रेरक,चतुर,सगुण,स्वतंत्र,आतमानंदस्वरूप,निर्विकल्प,आत्माराम,भक्तपरवस,सुंदर विग्रहसे सुशोभित योगी,नित्य योगपरायण, योग मार्गदर्शक, गर्वहारी ,लोकेश्वर और सदा दिनवत्सल  है | तुम उन्हीं की शरण में जाओ ,सर्वात्मना शंभू का भजन करो , इससे संतुष्ट होकर वे  तुम्हारा कल्याण करेंगे, यदि तुम्हारे मन में यह विचार हो कि शंकर पत्नी का पाणिग्रहण करें तो शिवा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से शिव का स्मरण करते हुए उत्तम तपस्या करो |अपने उस मनोरथ को ह्रदय में रखते हुए देवी शिवा का ध्यान करो | वे देवेश्वरी यदि प्रसन्न हो जाए तो सारा कार्य सिद्ध कर देगी | यदि शिवा सगुण रूप से अवतार ग्रहण करके लोक में किसी की पुत्री हो मानव शरीर ग्रहण करें तो वे निश्चय ही महादेव जी की पत्नी हो सकती है |ब्रहमन.. तुम दक्ष को आज्ञा दो वह भगवान शिव के लिए पत्निको उत्पन्न करने के निमित्त स्वत: भक्ति भाव से प्रयत्नपूर्वक तपस्या करें | शिवा और शिव दोनों को भक्तों के अधीन जानना चाहिए ,वे निर्गुण परम ब्रह्म स्वरूप होते हुए भी स्वेच्छा से सगुण हो जाते हैं | भगवान शिव की इच्छा से प्रगट हुए हम दोनों ने जब उनसे प्रार्थना की थी तब पूर्वकाल में भगवान शंकर ने जो बात कही थी उसे याद करो , अपनी शक्ति से सुंदर लीला-विहार करने वाले निर्गुण शिव ने स्वेच्छा से सगुण होकर मुजे और तुम्हें प्रगट करने के पश्चात तुम्हें तो सृष्टि- कार्य करने का आदेश दिया और उमा सहित उन अविनाशी सृष्टिकर्ता प्रभु ने मुजे  उस सृष्टिके पालनका कार्य सौंपा |

          फिर नाना लीला- विशारद उन दयालु स्वामी ने हंसकर आकाश की ओर देखते हुए बड़े प्रेम से कहा | मेरा उत्कृष्ट रूप इन विधाता के अंग से इस लोक में प्रकट होगा,जिसका नाम रुद्र होगा | रूद्र का रूप ऐसा ही होगा जैसा मेरा है | वह मेरा पूर्ण रूप होगा, तुम दोनों को सदा उसकी पूजा करनी चाहिए, और तुम दोनों के संपूर्ण मनोरथ हों कि सिद्धि करने वाला होगा ,वह समस्त गुणों का दृष्टा, निर्देश एवं उत्तम योग का पालक होगा |अधपि तीनों देवता मेंरेही रूप है, तथापि  विशेषत:: रूद्र मेरा पूर्ण रुप होगा | देवी उमा के भी तीन रूप होंगे | एक रूप का नाम लक्ष्मी होगा, जो इन श्री हरि विष्णु की पत्नी होगी | दूसरा रूप ब्रह्मपत्नी सरस्वती है | तीसरा रूप सतीके नाम से प्रसिद्ध होगा | सती उमा का पूर्ण रूप होगी |वही भावी रुद्र की पत्नी होगी | ऐसा कहकर भगवान महेश्वर दोनों पर कृपा करनेके पश्चात वहा से अतर्ध्यान हो गए | और दोनों सुखपूर्वक अपने-अपने कार्य मे लग गए | समय पाकर दोनों सपत्नीक हो गए और साक्षात भगवान शंकर रूद्र नाम से अवतीर्ण हुए | जो उस समय वे कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं | अब शिवा भी सती नाम से उत्पन्न होने वाली है| अतः तुम्हें उनके अवतरण[जन्म]के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए | ऐसा कह कर ब्रह्मा जी पर बड़ी भारी दया करके भगवान विष्णु अंतर्धान हो गए और ब्रह्मा जी को उनकी बातें सुनकर बड़ा आनंद प्राप्त हुआ [शिवपुराण अध्याय 7-10]  

 देवी शिवा का दक्ष को वरदान

 नारद जी ने पूज्य पिताजी ब्रह्मा जी से एक बात पूछूं पिताजी   द्रढतापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले दक्ष ने तपस्या करके देवी से कौन सा वर प्राप्त किया तथा वे देवी किस प्रकार दक्ष की कन्या होगी पिता से ब्रह्मा जी ने कहा नारद तुम धन्य हो इन सभी मुनियों के साथ भक्ति पूर्वक इस  प्रसंग को सुनो मेरी आज्ञा पाकर उत्तम बुद्धि वाले महा प्रजापति दक्ष ने शीर्ष आगर के उत्तर तट पर स्थित हो देवी जगदंबिका को पुत्र के रूप में प्राप्त करने की इच्छा तथा उनके प्रत्यक्ष दर्शन की कामना लिए उन्हें रही मंदिर में विराजमान करके तपस्या प्रारंभ की दक्ष ने मन को संयम में रखकर बैठ ता पूर्वक कठोर व्रत का पालन करते हुए सोच संतोष आदि नियमों से युक्त हो 3000 दिव्या वर्षों तक तप किया वह कभी जल पीकर रहते कभी हवा पीते और कभी सर्वदा उपवास करते थे भोजन के नाम पर कभी सूखे पत्ते चबाकर लेते थे 

             

         मोनी श्रेष्ठ नारद तदनंतर यम नियम आदि से युक्त हो जगदंबा की पूजा में लगे हुए दक्ष को देवी शिवा ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया जगन मई जगदंबा का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर प्रजापति दक्ष ने अपने आपको कृतकृत्य माना वह कालिका देवी सिंह पर आरोप थी उनकी अंग कांति श्याम थी मुख्य बड़ा ही मनोहर था वे चार भुजाओं से युक्त थी और हाथों में वर्ग अभय नील कमल और खड़क धारण किए हुए थे उनकी मूर्ति बड़ी मनोहारी निधि नेत्र कुछ-कुछ लाल थे खुले हुए केस बड़े सुंदर दिखाई देते थे उत्तम प्रभाव से प्रकाशित होने वाली उन जगदंबा को भलीभांति प्रणाम करके दक्ष विचित्र वचना वलियों द्वारा उनकी स्तुति करने लगे 

                      दक्ष ने कहा    जगदंब   महामाई   जगदीश महेश्वरी आपको नमस्कार है आपने कृपा करके मुझे अपने स्वरूप का दर्शन कराया है भगवती  आध्ये मुझ पर प्रसन्न होइए शिव रूपिणी प्रसन्न हुई है भक्त वरदायिनी प्रसन्न होइए जगनमोय आप को मेरा नमस्कार है

                         ब्रह्मा जी कहते हैं सैयद चित्र वाले दक्ष के इस प्रकार स्तुति करने पर महेश्वरी शिवानी स्वयं ही उनकी अभिप्राय को जान लिया तो भी दक्ष से इस प्रकार कहा दक्ष तुम्हारी इस उत्तम  भक्ति से मैं बहुत संतुष्ट हूं तुम अपना मनोवांछित वर मांगो तुम्हारे लिए मुझे कुछ भी अदा ही नहीं है जगदंबिका यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और उन शिवा को बारंबार प्रमाण करते हुए बोले

                जगदम महामाई यदि आप मुझे वर देने के लिए उद्धत है तो मेरी बात सुनिए और प्रसन्नता पूर्वक मेरी इच्छा पूर्ण कीजिए मेरे स्वामी जो भगवान शिव है विरुद्ध नाम धारण करके ब्रह्मा जी के पुत्र रूप में आए हुए हैं परमात्मा शिव के पूर्ण अवतार है परंतु आपका कोई अवतार नहीं हुआ फिर उनकी पत्नी कौन होगी अतः आप भूतल पर अवतरित होकर उन महेश्वरी को अपनी रूप लावण्य से मोहित कीजिए देवी आपके सिवा दूसरी कोई स्त्री रुद्रदेव को कभी मोहित नहीं कर सकती इसलिए आप मेरी पुत्री होकर इस समय महादेव जी की पत्नी हुई है इस प्रकार सुंदर लीला करके आप हर मोहिनी अर्थात भगवान शिव को मोहित करने वाले बनिए देवी यही मेरे लिए वर है यह केवल मेरी स्वार्थ की बात हो ऐसा नहीं सोचना चाहिए इसमें मेरे ही साथ संपूर्ण जगत का भी हित है ब्रह्मा विष्णु और शिव में से ब्रह्मा जी की प्रेरणा से मैं यहां आया हूं

            प्रजा यह वचन सुनकर जगदंबिका शिवा हंस पड़ी और मन ही मन भगवान शिव का स्मरण  का यो बोली देवी ने कहा साथ प्रजापति दक्ष मेरी उत्तम बात सुनो मैं सत्य कहती हूं तुम्हारी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हो तुम्हें संपूर्ण मनोवांछित वस्तु देने के लिए उद्धत हूं दक्ष अजय पी में माहेश्वरी हूं तथापि तुम्हारी भक्ति के अधीन हो तुम्हारी पत्नी के गर्व से तुम्हारी पुत्र के रूप में उत्पन्न होंगी इसमें संयम नहीं है आनंद मैं अत्यंत उत्साह तपस्या करके ऐसा प्रयत्न करूंगी जिससे महादेव जी कावर पाकर उनकी पत्नी हो जाओ इसके सिवा और किसी उपाय से कार्य सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि वह भगवान सदाशिव सर्वथा निर्विकार है ब्रह्मा और विष्णु के 20 सेमी है तथा नित्य परिपूर्ण रूप ही है मैं सदा उन की दासी और प्रिया प्रत्येक जन्म में वह नाना रूप धारी शंभू ही मेरे स्वामी होते हैं भगवान सदाशिव अपने लिए हुए वर के प्रभाव से ब्रह्मा जी की बूटी से रूद्र रूप से होते हुए हैं मैं भी उनके वर से उनकी आज्ञा के अनुसार यहां उतार लूंगी अब तुम अपने घर को जाओ इस कार्य में जो मेरी दुती अथवा सहायिका होगी उसे मैंने जान लिया है अब शीघ्र ही मैं तुम्हारी पुत्री होकर महादेव जी की पत्नी बनोगी

              दक्ष से उत्तम वचन कह कर मन ही मन शिव की आज्ञा प्राप्त करके देवी शिवानी शिव के  चरणारविंदो का चिंतन करते हुए फिर कहा प्रजापति परंतु मेरा एक  प्रण है

 उसे तुम्हें सदा मन में रखना चाहिए मैं उस प्राण को सुना देती हूं तुम मुझे सत्य समझो मीठा ना मानो यदि कभी मेरे प्रति तुम्हारा आदर घट जाएगा तब उसी समय में अपने शरीर को त्याग दूंगी अपने स्वरूप में लीन हो जाऊंगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूंगी मेरा यह कथन सत्य है प्रजापति प्रतीक सर्ग या कल्प के लिए तुम्हें यह वह दे दिया गया मैं तुम्हारी पुत्री होकर भगवान शिव की पत्नी होंगी

                   मुख्य प्रजापति दक्ष से ऐसा कहकर महेश्वरी शिवा उनके देखते-देखते वही अंतर्ध्यान हो गई दुर्गा जी के अंतर्ध्यान होने पर लक्ष्मी अपने आश्रम को लौट गए और यह सोचकर प्रसन्न रहने लगे कि देवी शिवा मेरी पुत्री होने वाली है [शिवपुराण अध्याय 11-12]           

                दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरंभ, दक्ष का नारद को साप देना ||

                              ब्रह्मा जी नारद को कहते हैं नारद प्रजापति दक्ष अपने आश्रम पर जाकर मेरी आज्ञा  पाकर हर्ष भरे मन से नाना प्रकार की मानसिक सुस्ती करने लगे उस प्रजा सृष्टि को बढ़ती हुई न देख प्रजापति दक्ष ने अपने पिता मुझे ब्रह्मा से कहा

                    दक्ष बोले ब्राह्मण तात प्रजा नाथ प्रजा बढ़ नहीं रही है प्रभु मैंने जितने जीवो की सृष्टि की थी वह सब उतने ही रह गए हैं पर जाना मैं क्या करूं जिस उपाय से यह जीव अपने आप बढ़ने लगे वह मुझे बताइए तदनुसार में प्रजा की सृष्टि करूंगा इसमें संयम नहीं है

                     ब्रह्मा जी ने कहा प्रजापति दक्ष मेरी उत्तम बात सुनो और उनके अनुसार कार्य करो सूर्य श्रेष्ठ भगवान शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे बृजेश प्रजापति पंच जन की जो परम सुंदरी पुत्री  असीक्नी उसे तुम पत्नी रूप से ग्रहण करो श्री के साथ मैथुन धर्म का आश्रय ले तुम पुनः इस प्रजा सर्ग को बढ़ाओ असीक्नी कामिनी के गर्भ से तुम बहुत सी संतान उत्पन्न कर सकोगे

                     तदनंतर मिथुन धर्म से प्रजा की उत्पत्ति करने के उद्देश्य से प्रजापति दक्ष ने मेरी आज्ञा के अनुसार हिरण प्रजापति की पुत्री के साथ विवाह किया अपनी पत्नी विनी के गर्भ से प्रजापति दक्ष ने 10000 पुत्र उत्पन्न किए  हर्यश्व कहलाए वे सब के सब पुत्र समान धर्म का आचरण करने वाले हुए पिता की भक्ति में तत्पर रहकर वे सदा वैदिक मार्ग पर ही चलते थे एक समय पिता ने उन्हें प्रजा की सृष्टि करने का आदेश दिया था तब वे सभी दाक्षायण  नामधारी पुत्र सृष्टि के उद्देश्य से तपस्या करने के लिए पश्चिम दिशा की ओर गए वहां नारायण सर नामक परम पावन तीर्थ है जहां दिव्य सिंधु नदी और समुद्र का संगम हुआ है उस तीर्थ जल का ही निकट से स्पष्ट करते उनका अंतःकरण शुद्ध एवं ज्ञान से संपन्न हो गया उनकी आंतरिक मल राशि धूल गई और वे परमहंस धर्म में स्थित हो गए दक्ष के व सभी पुत्र पिता के आदेश में बंधे हुए थे अतः मन को स्थिर करके प्रजा की वृद्धि के लिए वहां तब करने लगे वे सभी सत पुरुषों में श्रेष्ठ थे

               नारद जब तुम्हें पता लगा कि हर्यष्वगण सृष्टि के लिए तपस्या कर रहे हैं तब भगवान लक्ष्मीपति की हार्दिक अभिप्राय को जानकर तुम स्वयं उनके पास गए और आदर पूर्वक यो बोले दक्ष पुत्र हर्यष्वगण तुम सभी पृथ्वी का अंत देखे बिना सृष्टि रचना करने के लिए कैसे उदित हो गए

                  ब्रह्म ना हर्यश्व आलस्य से दूर रहने वाले थे और जन्म काल से ही बड़े बुद्धिमान थे वे सब के सब तुम्हारा उपर्युक्त कथन सुनकर स्वयं उस पर विचार करने लगे उन्होंने यह विचार किया कि जो उत्तम शास्त्र रुपी पिता के निवृत्ति परक आदेश को नहीं समझता वह केवल राज आदि गुणों पर विश्वास करने वाला पुरुष सृष्टि निर्माण का कार्य कैसे आरंभ कर सकता है ऐसा निश्चय करके उत्तम बुद्धि और एक चित्र वाले दक्ष कुमार नारद को प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके ऐसे पथ पर चले गए जहां जाकर कोई वापस नहीं लौटता है ना तुम भगवान शंकर के मन हो और मुनि तुम समस्त लोकों में अकेले विचारा करते हो तुम्हारे मन में कोई विकार नहीं है क्योंकि तुम सदा महेश्वर की मनोवृति के अनुसार ही कार्य करते हो जब बहुत समय बीत गया तब मेरे पुत्र प्रजापति दक्ष को यह पता लगा कि मेरे सभी पुत्र नारद से शिक्षा पाकर नष्ट हो गए इससे उन्हें बड़ा दुख हुआ वह बार-बार कहने लगे उत्तम संतानों का पिता होना चौक का ही स्थान है क्योंकि श्रेष्ठ पुत्रों के बिछड़ जाने से पिता को बड़ा कष्ट होता है शिव की माया से मोहित होने से लक्ष्य को पुत्र वियोग के कारण बहुत शौक होने लगा तब मैंने आकर अपने बेटे दक्ष को बड़े प्रेम से समझाया और सांत्वना दी देव का विधान प्रबल होता है|

        इत्यादि बातें बताकर उनके मन को शांत किया मेरे सांत्वना देने पर दक्ष पुणे पंचजन कन्या असीक्नीके गर्भ से शबलाष्व नाम के एक सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किए पिता का आदेश पाकर भी पुत्र भी प्रजा छुट्टी के लिए  ड्रढ्तापूर्वक प्रतिज्ञा पालन का नियम ले उसी स्थान पर गए जहां उनके सिद्धि को प्राप्त हुए बड़े भाई गए थे नारायण सरोवर के जल का स्पर्श होने मात्र से उनके सारे पाप नष्ट हो गए अंतः करण में शुद्धता आ गई और उत्तम व्रत के बालक शब्द लाश व ब्रह्म प्रणव का जप करते हुए वहां बड़ी भारी तपस्या करने लगे उन्हें प्रजा सृष्टि के लिए उद्धत जान तुम पुनः पहले की ही भांति ईश्वरी गति का स्मरण करते हुए उनके पास गए और वही बात कहने लगे जो उनके भाइयों से पहले कह चुके थे उन्हें तुम्हारा दर्शन आमोद है इसलिए तुमने उनको भी भाइयों का ही मार्ग दिखाया एवं भाइयों के ही पथ पर उद्धव गति को प्राप्त हुए उसी समय प्रजापति दक्ष को बहुत से उत्पाद दिखाई दिए इससे मेरे पुत्र दक्ष को बड़ा विस्मय हुआ और वह मन ही मन दुखी हुए फिर उन्होंने पूर्ववत तुम्हारी ही करतूत से अपने पुत्रों का नाश हुआ सोना इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ व पुत्र शोक समुचित हो अत्यंत कष्ट का अनुभव करने लगे फिर दक्ष ने तुम पर बड़ा क्रोध किया और कहा यह नारद बड़ा दृष्ट है देव बस उसी समय तुम दक्ष पर अनुग्रह करने के लिए वहां आ पहुंचे तुम्हें देखते ही शो का वेश में युक्त हुए दक्ष के आठ रोज से धड़कने लगे तुम्हें सामने पाकर वे निखारने और निंदा करने लगे

              दक्ष ने कहा और नीच तुमने यह क्या किया तुमने झूठ मुठ साधुओं का बाना पहन रखा है इसी के द्वारा टक्कर हमारे भोले भाले बालकों को जो तुमने भिक्षुओं का मार्ग दिखाया है अच्छा नहीं किया तुम निर्दई और शर्ट हो हो इसीलिए तुमने हमारे इन बालकों के जो अभी ऋषि-ऋण,देव-ऋण,और पितृ-ऋणसे मुक्त नहीं हो पाए थे लोक और परलोक दोनों के शरीर का नाश कर डाला जो पुरुष इन तीनों गुणों को उतारे बिना ही मोक्ष की इच्छा मन में लिए माता पिता को त्याग कर घर से निकल जाता है सन्यासी हो जाता है वह अधोगति को प्राप्त होता है तुम निर्दई और बड़े निर्लज्ज हो बच्चों की बुद्धि में भेद पैदा करने वाले हो और अपने सुयश को स्वयं ही नष्ट कर रहे हो मूड मते तुम भगवान विष्णु के पार्षदों में व्यस्त ही घूमते फिरते हो आदम आदम तुमने बारंबार मेरा अमंगल किया है अतः आज से तीनों लोगों में विचार ते हुए तुम्हारा पेड़ कहीं स्थिर नहीं रहेगा अथवा कहीं भी तुम्हें ठहरने के लिए सुतीर्थ और ठिकाना नहीं मिलेगा

               नारद अभी तुम साधु पुरुषों द्वारा सम्मानित हो तथापि उस समय दक्षिण अशोक वस्तु में  वैश्या शाप दे दिया ईश्वर की इच्छा को नहीं समझ सके शिव की माया ने उन्हें अत्यंत मोहित कर दिया था उन्हें तुमने उस सांप को चुपचाप ग्रहण कर लिया और अपने चित्र में विकार नहीं आने दिया यही ब्रह्मा वह ईश्वर को टीके महात्मा पुरुष स्वयं साप को मिटा देने में समर्थ होने पर भी उसे सह लेते हैं || [शिवपुराण अध्याय १३]

   दक्ष की 60 कन्याओं का विवाह, दक्ष और विरिणी  के यहां देवी शिवा का अवतार |

                   ब्रह्मा जी कहते हैं देवर से इसी समय दक्ष के इस बर्ताव को जानकर में भी वहां आ पहुंचा और पूर्ववत उन्हें शांत करने के लिए सांत्वना देने लगा तुम्हारी प्रसन्नता को बढ़ाते हुए मैंने दक्ष के साथ तुम्हारा सुंदर स्नेह पूर्ण संबंध स्थापित कराया तुम मेरे पुत्र हो मुनियों में श्रेष्ठ और संपूर्ण देवताओं की परी हो अतः बड़े प्रेम से तुम्हें आश्वासन देकर में फिर अपने स्थान पर आ गया तदनंतर प्रजापति दक्ष ने मेरी अनु नई के अनुसार अपनी पत्नी के गर्व से 60 सुंदरी कन्याओं को जन्म दिया और आलस्य रहित हो धर्म आदि के साथ उन सब का विवाह कर दिया मुनीश्वर में उसी प्रश्न को बड़े प्रेम से कह रहा हूं तुम सुनो मुनि दक्ष ने अपनी 10 कन्याएं विधिपूर्वक धर्म को ब्याह दी 13 कन्याएं कश्यप मुनि को दे दी और 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा के साथ कर दिया या बहू पुत्र अंगिरा तथा कुशेश्वर को उन्होंने दोनों कन्याए दी और शेष 4 कन्याओं का विवाह तक शरिया या अरिष्ठनेमी के साथ कर दिया इन सब की संतान परंपराओं से तीनों लोग भरे पड़े हैं |

          अतः विस्तार वहीं से उनका वर्णन नहीं किया जाता कुछ लोग शिवा या क्षति को दक्ष की जयेश पुत्री बताते हैं दूसरे लोग उन्हें मछली पुत्र कहते हैं तथा कुछ अन्य लोग सबसे छोटी पुत्री मांगते हैं कल पैसे यह तीनों मत ठीक है पुत्र और पुत्रियों की उत्पत्ति के पश्चात पत्नी सहित प्रजापति दक्ष ने बड़े प्रेम से मन ही मन जगदंबिका का ध्यान किया साथ ही गदगद वाणी से प्रेम पूर्वक उनकी स्तुति भी बारंबार अंजलि बांध नमस्कार करके हुए विनीत भाव से देवी को मस्तक झुकाते थे इससे देवी शिवा संतुष्ट हुई और उन्होंने अपने प्राण की पूर्ति के लिए मन ही मन यह विचार किया कि अब मैं विरिणी के गर्भ से अवतार लूं ऐसा विचार कर कर वे जगदंबा दक्ष के हृदय में निवास करने लगी मुनि श्रेष्ठ उस समय दक्ष की बड़ी शोभा होने लगी फिर उत्तम मुहूर्त देखकर दक्ष ने अपनी पत्नी में प्रसन्नता पूर्वक गर्भाधान किया तब दयालु शिवा दक्ष पत्नी के चित्र में निवास करने लगे उनमें गर्भधारण के सभी चिह्न प्रगट हो गए तात उस अवस्था में विरिणी की शोभा बढ़ गई और उसके चित्र में अधिक हर्ष छा गया भगवती शिवा के निवास के प्रभाव से विरिणी महामंगल रूपिणी हो गई दक्ष ने अपने कुल संप्रदाय वेद ज्ञान और हार्दिक उत्साह के अनुसार प्रसन्नता पूर्वक पुंसवन संस्कार संबंधी श्रेष्ठ क्रियाएं संपन्न की उन कर्मों के अनुष्ठान के समय महान उत्सव हुआ प्रजापति ने ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार धन दिया

                इस अवसर पर विरिणी के गर्भ में देवी का निवास हुआ जानकर श्री विष्णु आदि सब देवताओं को बड़ी प्रसन्नता होगी उन सब ने  वहां आकर जगदंबा का स्तवन किया और समस्त लोगों का उपकार करने वाली देवी शिवा को बारंबार  प्रणाम किया वह सब देवता प्रसन्न चित्त हो दक्ष प्रजापति तथा विरिणीकी भूरी भूरी प्रशंसा करके अपने अपने स्थान को लौट गए नारद जब 9 महीने बीत गए तब अलौकिक गति का निर्वाह कराकर दसवें महीने की पूर्ण होने पर चंद्रमा आदि ग्रहों तथा धाराओं की अनुकूलता से युक्त सुखद मुहूर्त में देवी शिवा सिद्धि अपनी माता के सामने प्रकट हुई उनकी अवतार लेते ही प्रजापति दक्ष बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें महान तेज से देवी के मान देख उनके मन में यह विश्वास हो गया कि साक्षात में शिवा देवी ही मेरी पुत्री के रूप में प्रगट हुई है उस समय आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और मैं गजल बरसाने लगे मुनीश्वर सती के जन्म लेते ही संपूर्ण दिशाओं में तत्काल शांति छा गई देवता आकाश में खड़े हो मांगलिक बाजे बजाने लगे अग्नि शालाओं की बुझी हुई अग्निया सहरसा प्रज्वलित हो उठी और सब कुछ परम मंगलमय हो गया विरिनिके  घर साक्षात जगदंबा को प्रगट हुई देख दक्ष ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और बड़े भक्ति भाव से उनकी बड़ी स्तुति की

                    बुद्धिमान दक्ष के स्तुति करने पर जगदंबा शिवा उस समय दक्ष से इस प्रकार बोली जिससे मा वीरिणी न सुन सके देवी शिवा बोली प्रजापति तुमने पहले पुत्री रूप में मुझे प्राप्त करने के लिए मेरी आराधना की थी तुम्हारा वह मनोरथ सिद्ध हो गया अब तुम उस तपस्या के फलों को ग्रहण करो

          उस समय दक्ष से ऐसा कहकर देवी ने अपनी माया से शिशु रूप धारण कर लिया और शैशव भाव प्रकट करती हुई व्यवहार रोने लगी उस बालिका का रौद्र सुनकर सभी स्त्रियां और दासिया बड़े वेग से प्रसन्नता पूर्वक वहां आ पहुंची असीक्नी  की  पुत्री का अलौकिक रूप देखकर उन सभी स्त्रियों को बड़ा हर्ष हुआ नगर के सब लोग उस समय जय-जयकार करने लगे गीत और बाघों के साथ बड़ा भारी उत्सव होने लगा पुत्रिका मनोहर मुख्य देख कर सब को बड़ी ही प्रसन्नता होगी दक्ष ने वैदिक और क्लोज चित अचार का विधि पूर्वक अनुष्ठान किया ब्राह्मणों को दान दिया वह दूसरों को भी धन बाटा सब और यथोचित गान और मोती होने लगे भांति भांति के मंगल कृतियों के साथ बहुत से बाजे बजने लगे उस समय दक्ष ने समस्त सद्गुणों की सत्ता से प्रशन सिद्ध होने वाली अपनी उस पुत्र का नाम प्रसन्नता पूर्वक उमा रखा तदनंतर संसार में लोगों की ओर से उसके और भी नाम प्रचलित किए गए जो सब के सब महान मंगल दायक तथा विशेष अतः समस्त दुखों का नाश करने वाले हैं विरिणी  और महात्मा दक्ष अपनी पुत्री का पारण करने लगे तथा वह शुक्ल पक्ष की चंद्रकला के समान दिनों दिन बढ़ने लगी बृजेश श्रेष्ठ बाल्यावस्था में भी समस्त उत्तम उत्तम उसमें उसी तरह प्रवेश करने लगे जैसे शुक्ल पक्ष के बाल चंद्रमा में भी समस्त मनोहारी निकल आए प्रविष्ट हो जाती है दक्ष कन्या सतीश अंखियों के बीच बैठी बैठी जब अपने भाव से निमग्न होती थी तब बारंबार भगवान शिव की मूर्ति को  चित्रित करने लगती थी मंगलमय सती जब बालियों चित्र सुंदर गीत गाती तब स्थानों हर एवं रूद्र नाम लेकर स्मरशत्रु शिव का स्मरण किया करती थी इस तरह देवी शिवा का अवतरण हुआ   ||

 [शिवपुराण अध्याय १४]

कैलाश मे जाकर सती की तपस्या से संतुष्ट देवताओका भगवान शिव का स्तवन करना  

      ब्रह्मा जी ने नारद से कहा एक दिन मैंने तुम्हारे साथ जाकर पिता के पास खड़ी हुई क्षति को देखा वह तीनों लोगों की सार भूता सुंदरी थी उसके पिता ने मुझे नमस्कार करके तुम्हारा भी सत्कार किया यह देख लोग लीला का अनुसरण करने वाली सती ने भक्ति और प्रसन्नता के साथ मुझको और तुमको भी प्रणाम किया नारद तदनंतर सदी की ओर देखते हुए हम और तुम दक्ष के दिए हुए शुभ आसन पर बैठ गए थे तत्पश्चात मैंने उस विनय शिलाबालिका से कहा सती जो केवल तुम्हें ही चाहते हैं और तुम्हारे मन में भी एक मात्र जिंदगी यही कामना है उन्ही सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेव जी को तुम पति रूप में प्राप्त करो सुबह जो तुम्हारे सिवा दूसरे किसी स्त्री को पत्नी रूप में न तो ग्रहण कर सके न करते हैं और न भविष्य में ही ग्रहण करेंगे वही भगवान शिव तुम्हारे पति हो वह तुम्हारे ही योग्य है दूसरे के नहीं

              नारद सती से ऐसा कहकर में दक्ष के घर में देर तक ठहरा रहा फिर उनसे विदा ले मैं और तुम दोनों अपने-अपने स्थान को चले आए मेरी बात को सुनकर 10 को बड़ी प्रसन्नता हुई उनकी सारी मानसिक चिंता दूर हो गई और उन्होंने अपनी पुत्री को परमेश्वरी समझकर गोद में उठा लिया इस प्रकार कुमार उचित सुंदर लीला बिहारो से सुशोभित होती हुई भक्तवत्सला सती जो स्वेच्छा से मानव रूप धारण करके प्रगट हुई थी कौमारावस्था पार कर गई थी बाल्यावस्था बिताकर किंचित युवावस्था को प्राप्त हुई सती अत्यंत तेज एवं शोभा से संपन्न हो संपूर्ण अंगों से मनोहर दिखाई देने लगी लोकेश दक्ष ने देखा कि सती के शरीर में युवावस्था के लक्षण प्रकट होने लगे हैं तब उनके मन में यह चिंता हुई कि मैं महादेव जी के साथ इनका विवाह कैसे करूं सतीश स्वयं भी महादेव जी को पाने की प्रतिदिन अभिलाषा रखती है अतः पिता के मनोभाव को समझकर विमाता के निकट गई विशाल बुद्धि वाली सती रूपिणी परमेश्वरी शिवानी अपनी माता विरिणी से भगवान शंकर की प्रसन्नता से निमित्त तपस्या करने के लिए आज्ञा मांगी माता की आज्ञा मिल गई अतः दर्द ता पूर्वक व्रत का पालन करने वाली सती ने महेश्वर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए अपने घर पर ही उनकी आराधना आरंभ की

                   आश्विन मास में नंदा याने प्रतिपदा षष्ठी और एकादशी तिथियों में उन्होंने भक्ति पूर्वक गुड और नमक चढ़ाकर भगवान शिव का पूजन किया और उन्हें नमस्कार करके उसी नियम के साथ उस मास्को व्यतीत किया कार्तिक मास की चतुर्दशी को सजा कर रखे हुए मालपुआ और खीर से परमेश्वर शिव की आराधना करके वे निरंतर उनका चिंतन करने लगी मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को तिल जाओ और चावल से हर की पूजा करके ज्योतिर्मयी दीप दिखाकर अथवा आर्थिक करके सती दिन बिता तिथि पौष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को रात भर जागरण करके प्रातः काल खिचड़ी का नावेद लगा वह शिव की पूजा करती थी माघ की पूर्णिमा को रात में जागरण करके सवेरे नदी में नहाती और गीले वस्त्र से ही तट पर बैठकर भगवान शंकर की पूजा करती थी |

       फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को रात में जागरण करके उस रात्रि के चारों पैरों में शिव जी की विशेष पूजा करती और नाटो द्वारा नाटक भी कराती थी चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को विभिन्न राज्यों का स्मरण करती हुई समय बिताती और डाक के फूलों तथा दवाओं से भगवान शिव की पूजा करती थी वैशाख शुक्ल तृतीया को क्षति दिल का आहार करके रहती और नए जो के बाद से रूद्र देव की पूजा करके उस महीने को बिताती थी जेस्ट की पूर्णिमा को रात में सुंदर वस्त्रों और भटकटैया के फूलों से शंकर जी की पूजा करके वे निराहार रहकर ही वह मांस व्यतीत करती थी आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को काले वस्त्र और भटकटैया के फूलों से वेद रूद्र देव का पूजन करती थी सावन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी को यज्ञोपवित वस्त्रों और कुश की पवित्री से शिव की पूजा किया करती थी भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को नाना प्रकार के फूलों और फलों से शिव का पूजन करके सतीश चतुर्दशी तिथि को केवल जल का आहार किया करती थी बाती बाती के फलो फूलो और उस समय उत्पन्न होने वाले अन्य द्वारा विश्व की पूजा करती और महीने भर अत्यंत नियमित आहार करके केवल में लगी रहती थी सभी महीनों में सारे दिन सती शिव की आराधना में ही रहती थी अपनी इच्छा में मानव रूप धारण करने वाली वे देवी दद्दा पूर्वक उत्तम व्रत का पालन करती थी इस प्रकार नंदावत को पूर्ण रूप से समाप्त करके भगवान शिव में अनन्य भाव रखने वाली क्षति एकाग्र चित्त हो बड़े प्रेम से भगवान शिव का ध्यान करने लगी तथा उस ध्यान में ही निश्चल भाव से व्यवस्थित हो गई ||

                  इसी समय सब देवता और ऋषि भगवान विष्णु और मुझ को आगे करके सती की तपस्या देखने के लिए गए वहां आकर देवताओं ने देखा सती मूर्ति मती दूसरी सिद्धि के समान जान पड़ती है वह भगवान शिव के ध्यान में निमग्न हो उस समय सिद्धा वस्था को पहुंच गई थी समस्त देवताओं ने बड़ी प्रसन्नता के साथ वहां दोनों हाथ जोड़कर सभी को नमस्कार किया मुनियों ने भी मस्तक झुका है तथा श्री हरि आदि के मन में प्रीति उमड़ आई श्री विष्णु आदि सब देवता और मुनि आश्चर्यचकित हो सती देवी की तपस्या की भूरी भूरी प्रशंसा करने लगे फिर देवी को प्रणाम करके वह देवता और मुनि तुरंत ही गिरी श्रेष्ठ कैलाश को गए जो भगवान शिव को बहुत ही प्रिय है सावित्री के साथ में मैं और लक्ष्मी के साथ भगवान सुदेव भी प्रसन्नता पूर्वक महादेव जी के निकट गए वहां जाकर भगवान शिव को देखते ही बड़े वेग से प्रणाम करके सब देवताओं ने दोनों हाथ जोड़ विनीत भाव से नाना प्रकार के थ्रो थ्रो द्वारा उनकी स्तुति कर के अंत में कहा प्रभु आपकी सत्व रज और तम नामक जो तीन शक्तियां है उनके राग आदि वेग असह्य है वेद त्रई अथवा लोकप्रिय आप का स्वरूप है आप शरणागत ओके पालक है तथा आपकी शक्ति बहुत बड़ी है उसकी कहीं कोई सीमा नहीं है आपको नमस्कार है दुर्गावती जिनकी इंद्रिया दृष्ट है बस में नहीं हो पाती उनके लिए आप की प्राप्ति का कोई मार्ग सुलभ नहीं है आप सदा भक्तों के उद्धार में तत्पर रहते हैं आपका तेज छिपा हुआ है आप को नमस्कार है आपकी माया शक्ति रूपा जो हम बुद्धि है उससे आत्मा का स्वरूप ढक गया है अतएव यह मूड बुद्धि जीव अपने स्वरुप को नहीं जान पाता आप की महिमा का पारणा अत्यंत कठिन ही नहीं सर्वथा असंभव है हम आप महाप्रभु को मस्तक झुकाते हैं

              ब्रह्मा जी कहते हैं नारद इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके श्री विष्णु आदि सब देवता उत्तम  भक्ति से मस्तक झुका है प्रभु शिवजी के आगे चुपचाप खड़े हो गए |

[ शिवपुराण अध्याय १५]

             रुद्रदेव से सती के साथ विवाह करने का ब्रह्मा जी का अनुरोध

                       ब्रह्मा जी कहते हैं श्री विष्णु आदि देवताओं द्वारा की हुई उस स्थिति को सुनकर सब की उत्पत्ति के हेतु भूत भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए और जोर जोर से हंसने लगे मुझे ब्रह्मा और विष्णु को अपनी अपनी पत्नी के साथ आया हुआ देख महादेव जी ने हम लोगों से यथोचित वार्तालाप किया और हमारे आगमन का कारण पूछा

                        रूद्र बोले हे हरि हे विद्या तथा हे देवताओं और महर्षि हो आज निर्भय होकर यहां अपने आने का ठीक-ठीक कारण बताओ तुम लोग किस लिए यहां आए हो और कौन सा कार्य आप पड़ा है वह सब मैं सुनना चाहता हूं क्योंकि तुम्हारे द्वारा की गई स्तुति से मेरा मन बहुत प्रसन्न है

                          मुनि महादेव जी के इस प्रकार पूछने पर भगवान विष्णु की आज्ञा से मैंने वार्तालाप आरंभ किया

                 देव देव महादेव करुणा सागर प्रभु हम दोनों इन देवताओं पुरुषों के साथ जिस उद्देश्य से यहां आए हैं उसे सुनिए वृषभध्वज विशेषता आपके ही लिए हमारे यहां आगमन हुआ है क्योंकि हम तीनों सहार थी है सृष्टि चक्र के संचालन रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिए एक दूसरे के सहायक है सहार थी को सदा परस्पर यथा योग्य सहयोग करना चाहिए अन्यथा यह जगह टिक नहीं सकता महेश्वर कुछ ऐसे असुर उत्पन्न होंगे जो मेरे हाथ से मारे जाएंगे कुछ भगवान विष्णु के और कुछ आपके हाथों नष्ट होंगे महाप्रभु कुछ असुर ऐसे होंगे जो आप के वीर्य से उत्पन्न हुए पुत्र के हाथ से ही मारे जा सकेंगे प्रभाव कहीं कोई विरले ही असूल ऐसे होंगे जो माया के हाथों द्वारा वध को प्राप्त होंगे आप भगवान शंकर की कृपा से ही देवताओं को सदा उत्तम सुख प्राप्त होगा और असुरों का विनाश करके आप जगत को सदा स्वास्थ्य एवं अभय प्रदान करेंगे अथवा यह भी संभव है कि आपके हाथ से कोई भी असुर न मारे जाए क्योंकि आप सदा योग युक्त रहते हुए राग द्वेष से रहित है तथा एकमात्र दया करने में ही लगे रहते हैं इस यदि वसूल भी आधारित हो आप की दया से अनुग्रहित होते रहे तो सृष्टि और पालन का कार्य कैसे चल सकता है अतः वृषभध्वज आपको प्रतिदिन सृष्टि आदि के उपर्युक्त कार्य करने के लिए उद्धत रहना चाहिए यदि सृष्टि पालन और संहार रूप कर्म न करने हो तब तो हमने माया से जो भिन्न-भिन्न शरीर धारण किए हैं उनकी कोई उपयोगिता अथवा औचित्य ही नहीं है वास्तव में हम तीनों एक ही है कार्य के भेद से भिन्न भिन्न दे धारण करके स्थित है यदि कार्य भेद न सिद्ध हो तब तो हमारे ग्रुप भेद का कोई प्रयोजन ही नहीं है देव एक ही परमात्मा महेश्वर 300 रूपों में अभिव्यक्त हुए हैं इस रूप भेद में उनकी अपनी माया ही कारण है वास्तव में प्रभु स्वतंत्र हैं वे लीला के उद्देश्य से ही यह सृष्टि आदि कार्य करते हैं |

        भगवान श्रीहरि उनके बाएं अंग से प्रकट हुए हैं मैं ब्रह्मा उनके दाएं अंग से प्रकट हुआ हूं और आप रुद्रदेव उन सदाशिव के हृदय से अभिभूत हुए हैं अतः आप ही शिव के पूर्ण रूप है प्रभु इस प्रकार अभिन्न रूप होते हुए भी हम तीन रूपों में प्रकट हुए हैं सनातन देव हम तीनों उन्हीं भगवान सदाशिव और शिवा के पुत्र हैं इस यथार्थ तत्व का आपदा से अनुभव कीजिए प्रभु मैं और श्री विष्णु आप के आदेश से प्रसन्नता पूर्वक लोक की सृष्टि और पालन के कार्य कर रहे हैं तथा कार्य कारणवश शपथ तनिक भी हो गए हैं अतः आप भी विश्व व हित के लिए तथा देवताओं को सुख पहुंचाने के लिए एक परम सुंदरी रमणी को अपनी पत्नी बनाने के लिए ग्रहण करें महेश्वर एक बात और है उसे चुनिए मुझे पहले की वृतांत का स्मरण हो आया है पूर्वकाल में आपने ही शिव रूप से जो बात हमारे सामने कही थी वहीं इस समय सुना रहा हूं आपने कहा था ब्राह्मण मेरा ऐसा ही उत्तम रूप तुम्हारे अंग विशेष ललाट से प्रगट होगा जिसकी लोक में रूद्र नाम से प्रसिद्धि होगी तुम ब्रह्मा सृष्टि कर्ता हो गए श्री हरी जगत का पालन करने वाले हुए और मैं शगुन रूद्र रूप होकर सहार करने वाला होगा एक स्त्री के साथ विवाह करके लोक के उत्तम कार्य की सिद्धि करूंगा अपनी कही हुवी इस बात को याद करके आप अपनी ही पूर्व प्रतिज्ञा को पूर्ण कीजिए स्वामी आपका यह आदेश है कि मैं सृष्टि करूं श्रीहरि पालन करें और आप स्वयं सहार के हेतु बनकर प्रगट हो तो आप साक्षात शिव ही सहार कर्ता के रूप में प्रकट हुए हैं आपके बिना हम दोनों अपना अपना कार्य करने में समर्थ नहीं है अतः आप एक ऐसी कामिनी को स्वीकार करें जो लोकहित के कार्य में तत्पर रहें शंभू जैसे लक्ष्मी भगवान विष्णु की और सावित्री मेरी शहर मिनी है उसी प्रकार आप इस समय जीवन सहचारी प्राण वल्लभा को ग्रहण करें

                       मेरी यह बात सुनकर लोकेश्वर महादेव जी के मुख पर मुस्कुराहट दौड़ गई वह श्रीहरि के सामने मुझसे इस प्रकार बोले ,ईश्वर ने कहा ब्राह्मण अरे तुम दोनों मुझे सदा ही अत्यंत प्रिय हो तुम दोनों को देखकर मुझे बड़ा आनंद मिलता है तुम लोग समस्त देवताओं में श्रेष्ठ तथा त्रिलोकी के स्वामी हो लोक हित के कार्य में मन लगाए रखने वाले तुम दोनों का वचन मेरी दृष्टि में अत्यंत गौरवपूर्ण है किंतु सूर्य श्रेष्ठ गण मेरे लिए विवाह करना उचित नहीं होगा क्योंकि मैं तपस्या में सलंग्न रहकर सदा संसार से विरक्त ही रहता हूं और योगी के रूप में मेरी प्रसिद्धि है जो न्यूरित के सुंदर मार्ग पर स्थित है अपने आत्मा में ही रमण करता आनंद मानता है निरंजन माया से निर्लिप्त है जिनका शरीर अवधूत दिगंबर है जो ज्ञानी आत्म दर्शन और कामना से शून्य है जिसके मन में कोई विकार नहीं है जो भावों से भाव से दूर रहता है तथा जो सदा अपवित्र और ओम मंगल विषधारी है उसे संसार में कामिनी से क्या प्रयोजन है यह इस समय मुझे बताओ तो सही मुझे तो सदा केवल योग में लगे रहने पर ही आनंद आता है या नहीं पुरुष ही योग को छोड़कर भाग को अधिक महत्व देता है संसार में विवाह करना पड़ा यह बंधन में बंधना है इसे बहुत बड़ा बंधन समझना चाहिए इसलिए मैं सत्य सत्य कहता हूं विवाह के लिए मेरे मन में थोड़ी सी भी अभी रुचि नहीं है आत्मा ही अपना उत्तम अर्थ या स्वार्थ है उसका भली-भांति चिंतन करने के कारण मेरी अलौकिक स्वार्थ में प्रति नहीं होती तथापि जगत के हित के लिए तुमने जो कुछ कहा है उसे करूंगा तुम्हारे वचन को गरिष्ठ मानकर अथवा अपनी कही हुई बात को पूर्ण करने के लिए मैं अवश्य विवाह करूंगा क्योंकि मैं सदा भक्तों को वश में रहता हूं |

         परंतु मैं जैसी नारी को प्रिय पत्नी के रूप में ग्रहण करूंगा और जैसी शर्त शर्त के साथ करूंगा उसे सुनो हरे भ्रमण में जो कुछ कहता हूं वह सर्वथा उचित ही है जो नारी मेरे तेज को विभाग पूर्वक ग्रहण कर सके जो योगिनी तथा इच्छा अनुसार रूप धारण करने वाली हो उसी को तुम पत्नी बनाने के लिए मुझे बताओ जब मैं योग में तत्पर हूं तब उसे भी योगी नहीं बन कर रहना होगा और जब मैं काम आसक्त हो तब उसे भी काम ही नहीं के रूप में ही मेरे पास रहना होगा वेद वेद विद्वान जिन्हें अविनाशी बतलाते हैं उन ज्योति स्वरूप सनातन शिव का मैं सदा चिंतन करता हूं और करता रहूंगा भ्रमण उन सदाशिव के चिंतन में जब में न लगा हो तभी उस भामिनी के साथ में समागम कर सकता हूं जो मेरे शिव चिंतन में विघ्न डालने वाली होगी वह जीवित नहीं रह सकती उसे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा तुम विष्णु और मैं तीनों ही ब्रह्म स्वरूप शिव के अंश भूत हैं अतः महा भागवत हमारे लिए उनका निरंतर चिंतन करना ही उचित है कमलासन उनके चिंतन के लिए बिना विवाह के भी रह लूंगा किंतु उनका चिंतन छोड़कर विवाह नहीं करूंगा अतः तुम मुझे ऐसी पटना पत्नी प्रदान करो जो सदा मेरे कर्म के अनुकूल चल सके  भ्रमण उससे भी मेरी एक शर्त है उसे तुम सुनो यदि उस तरीका मुझ पर और मेरे वचन पर अविश्वास होगा तो मैं उसे त्याग दूंगा

                  उनकी यह बात सुनकर मैंने और श्रीहरि ने मंद मुस्कान के साथ मन ही मन प्रसन्नता का अनुभव किया फिर मैं विनम्र होकर भोला नाथ महेश्वर प्रभु आपने जैसी नारी की खोज आरंभ की है वैसे ही स्त्री के विषय में मैं आपको प्रसन्नता पूर्वक कह रहा हूं साक्षात सदाशिव की धर्मपत्नी जो उमा है वही जगत का कार्य सिद्ध करने के लिए भिन्न भिन्न रूप में प्रगट हुई है प्रभु सरस्वती और लक्ष्मी यह दो रूप धारण करके पहले ही यहां आ चुकी है इनमें लक्ष्मी तो श्री विष्णु की प्राण वल्लभा हो गई और सरस्वती मेरी अब हमारे लिए वे तीसरा रूप धारण करके प्रगट हुई है प्रभु लोक हित का कार्य करने की इच्छा वाली देवी शिवा दक्ष पुत्री के रूप में हुई है उनका नाम सती है सती ही ऐसी भारिया हो सकती है जो सदा आपके लिए हितकारिणी हो देवेश महा तेजस्विनी सती आपके लिए आप को पति रूप में प्राप्त करने के लिए दृढ़ता पूर्वक कठोर व्रत का पालन करती हुई तपस्या कर रही है महेश्वर आप उन्हें वर देने के लिए जाइए कृपा कीजिए और बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें उनकी तपस्या के अनुरूप वर देकर उनके साथ विवाह कीजिए शंकर भगवान विष्णु की मेरी तथा इन संपूर्ण देवताओं की यही इच्छा है आप अपनी शुभ दृष्टि से हमारी इस इच्छा को पूर्ण कीजिए जिससे हम आदर पूर्वक इस उत्सव को देख सके ऐसा होने से तीनों लोकों में सुख देने वाला परम मंगल होगा और सब की सारी चिंता मिट जाएगी इसमें संयम नहीं है

              तदनंतर मेरी बात समाप्त होने पर लीला विग्रह धारण करने वाले भक्तवत्सल महेश्वर से मधुसूदन अच्युता ने इसी का समर्थन किया  तब भक्तवत्सल भगवान शिव ने हंसकर कहा बहुत अच्छा ऐसा ही होगा उनके ऐसा कहने पर हम दोनों उनसे आज्ञा ले अपनी पत्नी तथा देवताओं और मुनियों के साथ अत्यंत प्रसन्न हो अपने अभीष्ट स्थान को चले आए [शिवपुराण अध्याय १६] 

  सती को शिव से वर की प्राप्ति , शिव द्वारा सती का वरण करना

         

                    ब्रह्मा जी कहते हैं मुनि उधर सती ने आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को उपवास करके भक्ति भाव से सर्वेश्वर शिव का पूजन किया इस प्रकार नंदा व्रत पूर्ण होने पर नवमी तिथि को दिन में ध्यान मग्न हुई क्षति को भगवान शिव ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया उनका श्री विग्रह सर्वात सुंदर एवं गौरव वर्ण का था उनके पांच मुख थे और प्रतीक मुख से 33 नेतृत्व है बाल देश में चंद्रमा शोभा दे रहा था उनका चित्त प्रसन्न था और कंठ में नील चिन्ह दृष्टिगोचर होता था उनके चार भुजाएं थी उन्होंने हाथों में त्रिशूल ब्रह्म कपाल वर्ग तथा अभय धारण कर रखे थे 10 मई अंगराग से उनका सारा शरीर उभद्रासित हो रहा था गंगा जी उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रही थी उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे वह महान बामणीय के धाम जान पढ़ते थे उनके मुख करोड़ों चंद्रमा के समान प्रकाशमान एवं आहलाद्जनक थे उनकी अंग कांति करोड़ों कामदेव को तिरस्कृत कर रही थी तथा उनकी आकृति स्त्रियों के लिए सर्वथा ही प्रिय थी सती ने ऐसे सौंदर्य माधुर्य से युक्त प्रभु महादेव जी को प्रत्यक्ष देखकर उनके चरणों की वंदना की उस समय उनका मुख लज्जा से जुड़ा हुआ था तपस्या के पुण्य का फल प्रदान करने वाले महादेव जी  उन्हीं के लिए कठोर व्रत धारण करने वाली पति को पत्नी बनाने के लिए प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए भी उनसे इस प्रकार बोले

                   महादेव जी ने कहा उत्तम व्रत का पालन करने वाली दक्ष नंदिनी मैं तुम्हारे इस व्रत से बहुत प्रसन्न हूं इसलिए कोई वर मांगो तुम्हारे मन को जो अभीष्ट होगा वही वर मैं तुम्हें दूंगा

               ब्रह्मा जी ने कहा मुनि जगदीश्वर महादेव जी आधी सदी के मनोभाव को जानते थे तो भी उनकी बात सुनने के लिए बोले कोई वर्मा हो परंतु सती लज्जा के अधीन हो गई थी इसलिए उनके रजाई में जो बात थी उसे वे स्पष्ट शब्दों में कहना कि उनका जो अभीष्ट मनोरथ था वह लज्जा से आच्छादित हो गया प्राण बल्लभ शिव का प्रवचन सुनकर सती अत्यंत प्रेम में मग्न हो गई इस बात को जानकर भक्तवत्सल भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए और शुद्र ता पूर्वक बारंबार कहने लगे वह मांगो वर्मा को पुरुषों के आश्रित अंतर्यामी शंभू सती की भक्ति के वशीभूत हो गए थे तब सती ने अपनी लज्जा को रोककर महादेव जी से कहा वर देने वाले प्रभु मुझे मेरी इच्छा के अनुसार ऐसा वर दीजिए जोटल न सके भक्तवत्सल भगवान शंकर ने देखा सती अपनी बात पूरी नहीं कर पा रही है तब वे स्वयं ही उनसे बोले देवी तुम मेरी भारिया हो जाओ अपने अभीष्ट फल को प्रकट करने वाले उनके इस वचन को सुनकर आनंद मगन हुई क्षति चुपचाप खड़ी रह गई क्योंकि वह मनोवांछित वर पा चुकी थी अध्यक्ष कन्या प्रसन्न हो दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुका भक्तवत्सल शिव के बारंबार कहने लगी

             सती बोली देवाधिदेव महादेव प्रभु जगतपति आप मेरे पिता को कहकर वैवाहिक विधि से मेरा पाणि ग्रहण [हाथ ग्रहण] करे |  ब्रह्मा जी कहते हैं नारद सती की यह बात सुनकर भक्तवत्सल महेश्वर ने प्रेम से उनकी ओर देखकर कहा प्रिय ऐसा ही होगा तब दक्ष कन्या सती भी भगवान शिव को प्रणाम करके भक्ति पूर्वक विदा मांग जाने की आज्ञा प्राप्त करके मोह और आनंद से युक्त हो माता के पास लौट गई इधर भगवान शिव भी हिमालय पर अपने आश्रम में प्रवेश करके दक्ष कन्या सती के वियोग से कुछ कष्ट कष्ट का अनुभव करते हुए उन्हीं का चिंतन करने लगे देवर से फिर मन को एकाग्र करके अलौकिक गति का आश्रय ले भगवान शंकर ने मन ही मन मेरा स्मरण किया त्रिशूलधारी महेश्वर के स्मरण करने पर उनकी सिद्धि से प्रेरित हो मैं तुरंत ही उनके सामने जहां खड़ा हुआ दांत हिमालय के शिखर पर जहां सती के वियोग का अनुभव करने वाले महादेव जी विद्यमान थे वही में सरस्वती के साथ उपस्थित हो गया देवर से सरस्वती सहित मुझे आया देख सती के प्रेम पास में बंधे हुए शिव उत्सुकता पूर्वक बोले

                         भोले शिव ब्रह्म भ्रमण में सवार तब से अब मुझे इस स्वार्थ में ही स्वत्व सा प्रतीत होता है डकनिया सती ने बड़ी भक्ति से मेरी आराधना की है उसके नंदा व्रत के प्रभाव से मैंने उसे अभीष्ट  वर देने की घोषणा की ब्राह्मण तब उसने मुझसे यह वर मांगा कि आप मेरे पति हो जाइए यह सुनकर सर्वथा संतुष्ट हो मैंने भी कह दिया कि तुम मेरी पत्नी हो जाओ तब दक्षायणी सती मुझसे बोली जगतपति आप मेरे पिता को सूचित कर के विवाहित विधि से मुझे ग्रहण करें ब्राह्मण उसकी भक्ति से संतोष होने के कारण मैंने उसका वह अनुरोध भी स्वीकार कर लिया विधाता तब सती अपनी माता के घर चली गई और मैं यहां चला आया इसलिए अब तुम मेरी आज्ञा से दक्ष के घर जाओ और ऐसा मत ना करो जिससे प्रजापति दक्ष इधर ही मुझे अपनी कन्या का दान कर दे

                       उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर मैं कृतकृत्य और प्रसन्न हो गया तथा उन भक्तवत्सल विश्वनाथ से इस प्रकार बोला ब्रह्म भगवन शंभू आपने जो कुछ कहा है उस पर भली-भांति विचार करके हम लोगों ने पहले ही उसे सुनिश्चित कर दिया है वृषभ ध्वज इसमें मुख्यतः देवताओं का और मेरा भी स्वार्थ है दक्ष स्वयं ही आपको अपनी पुत्री प्रदान करेंगे किंतु आपकी आज्ञा से मैं भी उनके सामने आपका संदेश कह दूंगा सर्वेश्वर महाप्रभु महादेव जी से ऐसा कहकर मैं अत्यंत वेगसाली रथ के द्वारा दक्ष के घर जहां पहुंचा | 

                           यह सुनकर नारदजी ने पूछा वक्ताओं में श्रेष्ठ महा भाग विधाता बताइए जब सती घर पर लौट कर आई तब दक्ष ने उनके लिए क्या किया ब्रह्मा जी ने कहा तपस्या करके मनोवांछित वर पाकर सती जब घर को लौट गई तब वहां उन्होंने माता-पिता को प्रणाम किया सती ने अपनी सखी के द्वारा माता-पिता को तपस्या संबंधी सब समाचार कल वाया सखी ने यह भी सूचित किया कि सती को महेश्वर से वर की प्राप्ति हुई है वह सती की भक्ति से बहुत संतुष्ट हुए हैं सखी के मुंह से सारा वृत्तांत सुनकर माता-पिता को बड़ा आनंद प्राप्त हुआ और उन्होंने महान उत्सव किया उदार चैता दक्ष और महामनस्विनी विरिणीने ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार द्रव्य दिया तथा अन्यान्य अंधे और दिनों को भी धन बांटा प्रसन्नता बढ़ाने वाली अपनी पुत्री को रजाई से लगाकर माता विरिणीने  उसका मस्तक सुंघा और आनंद मग्न होकर उसकी बारंबार प्रसन्नता की तदनंतर कुछ काल व्यतीत होने पर धर्मों में श्रेष्ठ दक्ष इस चिंता में पढ़े कि मैं अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान शंकर के साथ किस तरह करूं महादेव जी प्रसन्न होकर आए थे पर वह तो चले गए अब मेरी पुत्री के लिए  वे फिर कैसे यहां आएंगे यदि किसी को शीघ्र ही भगवान शिव के निकट भेजा जाए तो यह भी उचित नहीं जान पड़ता क्योंकि यदि वे इस तरह अनुरोध करने पर भी मेरी पुत्री को ग्रहण न करें तो मेरी याचना निष्फल हो जाएगी

                  इस प्रकार की चिंता में पड़े हुए प्रजापति दक्ष के सामने में सरस्वती के साथ संस्था उपस्थित हुआ मुझ पिता को आया देख दक्ष प्रणाम करके विनीत भाव से खड़े हो गए उन्होंने मुझ स्वयंभू को यथा योग्य आसन दिया तदनंतर दक्ष ने जब मेरे आने का कारण पूछा तब मैंने सब बातें बताकर उनसे कहा प्रजापति भगवान शंकर ने तुम्हारी पुत्री को प्राप्त करने के लिए निश्चय ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है इस विषय में जो श्रेष्ठ कुर्ती हो उसका निश्चय करो जैसे सती ने नाना प्रकार के भाव से तथा सात्विक व्रत से द्वारा भगवान शिव की आराधना की है उसी तरह वह भी क्षति की आराधना करते हैं इसलिए दक्ष भगवान शिव के लिए ही संकल्प एवं प्रकट हुई अपनी इस पृथ्वी को तुम अभिलंब उनकी सेवा में शॉप दो इससे तुम  हो जाओगे मैं नारद के साथ जाकर उन्हें तुम्हारे घर ले जाऊंगा फिर तुम उन्हीं के लिए उत्पन्न हुई अपनी यह पुत्री उनके हाथ में दे दो

                 ब्रह्मा जी ने कहा नारद मेरी यह बात सुनकर मेरे पुत्र दक्ष को बड़ा हर्ष हुआ वह अत्यंत प्रसन्न होकर बोले पिताजी ऐसा ही होगा उन्हें जब मैं अत्यंत हर्षित हो वहां से उस स्थान को लौटा जहां लोक कल्याण में तत्पर रहने वाले भगवान शिव बड़ी उत्सुकता से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे नारद मेरे लौटाने पर स्त्री और पुत्री सहित प्रजापति दक्ष भी पूर्ण काम हो गए इतने संतुष्ट हुए मानो अमृत पीकर अधा गए हो | [शिवपुराण अध्याय १७]

                

   शिव और सती शिवा का विवाह 

             

                ब्रह्मा जी कहते हैं नारद तदनंतर में हिमालय के कैलाश शिखर पर रहने वाले परमेश्वर महादेव शिव को लाने के लिए प्रसन्नता पूर्वक उनके पास गया और उनसे इस प्रकार बोला वृषभ ध्वज सती के लिए मेरे पुत्र दक्ष ने जो बात कही है उसे सुनिए और जिस कार्य को भी अपने लिए असाध्य मानते थे उसे सिद्ध हुआ ही समझिए दक्ष ने कहा है कि मैं अपनी पुत्री भगवान शिव के ही हाथ में दूंगा क्योंकि उन्हीं  उन्हीं के लिए वह उत्पन्न हुई है शिव के साथ सती का विवाह हो यह कार्य तो मुझे स्वता ही अभीष्ट है फिर आपकी भी कहने से इनका महत्व और अधिक बढ़ गया मेरी पुत्री ने स्वयं इसी उद्देश्य से भगवान शिव की आराधना की है और इस समय शिवजी भी  मुझसे इसी के विषय में अन्वेषण पूछताछ कर रहे हैं इसलिए मुझे अपनी कन्या अवश्य ही भगवान शिव के हाथ में देनी है विधाता में भगवान शंकर शुभ लगना और शुभ मुहूर्त में यहां पधारे उस समय में उन्हें शिक्षा के तौर पर अपनी पुत्री दे दूंगा वृषभ ध्वज मुझसे दक्ष ने ऐसी बात कही है अतः आप शुभ मुहूर्त में उनके घर चलिए और सती को ले आइए

                       मुनेश्वर मेरी यह बात सुनकर भक्तवत्सल रूद्र अलौकिक गति का आश्रय ले हंसते हुए मुझसे बोले संसार की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी मैं तुम्हारे और नारद के साथ ही दक्ष के  घर चलूंगा अतः नारद का स्मरण करो अपने मरीचि आदि मानस पुत्र को भी बुला लो विद्या मैं उन सब के साथ दक्ष के निवास स्थान पर चलूंगा मेरे पार्षद भी मेरे साथ रहेंगे

                    नारद लोकाचार के निर्वाह में लगे हुए भगवान शिव के इस प्रकार  आज्ञा देने पर मैंने तुम्हारा और  मरीचि आदि पुत्रों का भी स्मरण किया मेरे याद करते ही तुम्हारे साथ मेरे सभी मानस पुत्र मन में आदर की भावना लिए शीघ्र ही वहां आ पहुंचे उस समय तुम सब लोग हर्ष से पुत्र फुल हो रहे थे फिर रूद्र के स्मरण करने पर शिव भक्तों के सम्राट भगवान विष्णु भी अपने सैनिकों तथा कमला देवी के साथ गरुड़ पर आरूढ़ हो तुरंत वहां आ गए तदनंतर चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि में रविवार को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में मुझे ब्रह्मा और विष्णु आदि समस्त देवताओं के साथ महेश्वर ने विवाह के लिए यात्रा के मार्ग में उन देवताओं पुरुषों के साथ यात्रा करते हुए भगवान शंकर बड़ी शोभा पा रहे थे वहां जाते हुए देवताओं मुनियों तथा आनंद मगन मन वाले प्रथम गणों का रास्ते में बड़ा उत्सव हो रहा था भगवान शिव की इच्छा से मृत शव यात्रा सर जटा और चंद्रकला आदि सब के सब उनके लिए यथा योग्य आभूषण बन गए तदनंतर वेग से चलने वाले बलवान बली वध नंदीकेश्वर पर आउट हुए महादेव जी श्री विष्णु आदि देवताओं को साथ लिए क्षण भर में प्रसन्नता पूर्वक दक्ष के घर जा पहुंचे

                  वहां विनीत चित्र वाले प्रजापति दक्ष समस्त आत्मीय जनों के साथ भगवान शिव की अगवानी के लिए उनके सामने आए उस समय उनके समस्त अंगों में हर्ष जनित रोमांच हो आया था स्वयं दक्ष ने अपने द्वार पर आए हुए समस्त देवताओं का सत्कार किया वे सब लोग सूर्य श्रेष्ठ शिव को बिठाकर उनके पास विभाग में स्वयं भी मुनियों के साथ क्रमशः बैठ गए इसके बाद दक्षिणी मुनियों सहित समस्त देवताओं की परिक्रमा की और उन सब के साथ भगवान शिव को घर के भीतर ले आए उस समय दक्ष के मन में बड़ी प्रसन्नता थी उन्होंने सर्वेश्वर शिव को उत्तम आसन देकर स्वयं ही विधि पूर्वक उनका पूजन किया  तत्पश्चात श्री विष्णु का मेरा ब्राह्मणों का देवताओं का और समस्त शिव गणों का भी यथोचित विधि से उत्तम भक्ति भाव से साथ पूजन किया इस तरफ पूजनीय पुरुषों तथा अन्य लोगों सहित उन सब का यथोचित आदर सत्कार करके दक्षिण मेरे मानस पुत्र मरीचि आदि मुनियों के साथ आवश्यक सलाह की इसके बाद मेरे पुत्र दक्ष ने मुझ पिता से मेरे चरणों में प्रणाम करके प्रसन्नता पूर्वक कहा प्रभु आप ही विवाहित कार्य कराए

               तब मैं भी हर्ष भरे अदृश्य बहुत अच्छा कह कर उठा और वह सारा कार्य कराने लगा तदनंतर ग्रहों के बल से युक्त शुभ लगना और मुहूर्त में दक्ष ने हर्ष पूर्वक अपनी पुत्री सती का हाथ भगवान शंकर के हाथ में दे दिया उस समय हर्ष से भरे हुए भगवान ऋषभ ध्वज ने भी वैवाहिक विधि से सुंदरी टक्स कन्या का पानी ग्रहण किया फिर मैंने श्री हरि ने तुम तथा अन्य मुनियों ने देवताओं और प्रथम गणों ने भगवान शिव को प्रणाम किया और सबने नाना प्रकार की स्थितियों द्वारा उन्हें संतुष्ट किया उस समय नाच गान के साथ महान उत्सव मनाया गया समस्त देवताओं और मुनियों को बड़ा आनंद प्राप्त हुआ भगवान शिव के लिए कन्यादान करके मेरे पुत्र दक्ष कृतार्थ हो गए शिवा और शिव प्रसन्न हुए तथा सारा संसार मंगल का निकेतन बन गया || [शिवपुराण अध्याय १८]

       

  सती शिवा और शिवके द्वारा अग्निकी परिक्रमा 

                 ब्रह्मा जी कहते हैं नारद कन्यादान करके दक्ष ने भगवान शंकर को नाना प्रकार की वस्तु यह दहेज में दी यह सब करके वह बड़े प्रसन्न हुए फिर उन्होंने ब्राह्मणों को भी नाना प्रकार के दिन बाटे तत्पश्चात लक्ष्मी सहित भगवान विष्णु शंभू शंभू के पास आ हाथ जोड़ खड़े हुए  और बोले देव देव महादेव दयासागर प्रभाव तात आप संपूर्ण जगत के पिता है और सती देवी सबकी माता है आप दोनों सत्य पुरुषों के कल्याण तथा दुष्टों के दमन के लिए सदा लीला पूर्वक अवतार ग्रहण करते हैं यह सनातन श्रुति का कथन है आप चिकने निरंजन के समान शोभा वाली क्षति के साथ जिस प्रकार शोभा पा रहे हैं मैं उसके उल्टे लक्ष्मी के साथ शोभा पा रहा हूं अर्थात सती नील बना तथा आप गौरव बना है उससे उल्टे में नील वर्ण तथा लक्ष्मी गौरव आना है

                    नारद में देवी सती के पास आकर ग्रह सूत्र विधि से विस्तार पूर्वक सारा अग्नि कार्य कराने लगा अचार्य तथा ब्राह्मणों की आज्ञा से शिवा और शिव ने बड़े हर्ष के साथ विधि पूर्वक अग्नि की परिक्रमा की उस समय वहां बड़ा अद्भुत उत्सव मनाया गया गाजे-बाजे और वक्त के साथ होने वाला उत्सव सबको बड़ा सुखद जान पड़ा

                      तदनंतर भगवान विष्णु भोले सदाशिव में आपकी आज्ञा से यहां शिव तत्व का वर्णन करता हूं समस्त देवता तथा दूसरे दूसरे मुनि अपने मन को एकाग्र करके इस विषय को सुनें भगवन आप प्रधान और उपप्रधान प्रकृति और उससे अतीत है आप के अनेक भाग है फिर भी आप भाग रहित है ज्योतिर्मयी स्वरूप वाले आप परमेश्वर के ही हम तीनों देवता अंस है आप कौन मैं कौन और ब्रह्मा कौन है आप परमात्मा के ही यह 3 अंश है जो सृष्टि पालन और संहार करने के कारण एक-दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं आप अपने स्वरूप का चिंतन कीजिए आपने स्वयं ही लीला पूर्वक शरीर धारण किया है आप निर्गुण ब्रह्म स्वरूप से एक है आप ही सगुण ब्रह्म है और हम ब्रह्मा विष्णु तथा रूद्र तीनों आपके अंश है जैसे एक ही शरीर के विभिन्न अवयव मस्तक ग्रीवा आदि नाम धारण करते हैं तथापि उस शरीर से विभिन्न नहीं है उसी प्रकार हम तीनों अंसा परमेश्वर के ही अंग है जो ज्योतिर्मयी आकाश के समान सर्वव्यापी एवं निर्णय स्वयं ही अपना धर्म पुराण कष्ट अव्यक्त अनंत नित्य तथा धीर आदि विशेषण से रहित नीर विशेष भ्रम है वही आप शिव है अतः आप ही सब कुछ है

                    ब्रह्मा जी कहते हैं मुनीश्वर भगवान विष्णु की यह बात सुनकर महादेव जी बड़े प्रसन्न हुए तदनंतर उस विवाह यज्ञ के स्वामी यजमान परमेश्वर शिव प्रसन्न हो लौकी की गति का आश्रय ले हाथ जोड़कर खड़े हुए मुझे ब्रह्मा से प्रेम पूर्वक बोले भोले भगवान ब्रहम आप अच्छी अब आप 200 आप उस महा भाग्य अत्यंत तो मुझे लिए दे भगवान शंकर का यह वचन सुनकर मैं हाथ जोड़ विनीत जीत से उन्हें बारंबार प्रणाम करके बोला देवेश यदि आप प्रसन्न हो और महेश्वर यदि में वर पाने के योग्य हो तो प्रसन्नता पूर्वक जो बात कहता हूं उसे आप पूर्ण कीजिए महादेव आप इसी रूप में इसी वेदी पर सदा विराजमान रहे जिससे आपके दर्शन से मनुष्यों के पाप धुल जाए चंद्रशेखर आप का सानिध्य होने से मैं इस वेदी के समीप आश्रम बनाकर तपस्या करूं यह मेरी अभिलाषा है चैत्र की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में रविवार के दिन इस बोतल पर जो मनुष्य भक्ति भाव से आपका दर्शन करें उसके सारे पाप तत्काल नष्ट हो जाए विपुल पुणे की वृद्धि हो और समस्त रोगों का सर्वथा नाश हो जाए जो नारी दुर्गा भवन दिया कहानी अथवा रूप ही ना हो वह भी आपके दर्शन मात्र से ही अवश्य निर्दोष हो जाए

                    मेरी यह बात उनकी आत्मा को सुख देने वाली थी इसे सुनकर भगवान शिव ने प्रसन्न चित्त से कहा विद्या तक ऐसा ही होगा मैं तुम्हारे कहने से संपूर्ण जगत के हित के लिए अपनी पत्नी सती के साथ इस वेदी पर सुस्थिर  भाव से स्थित रहूंगा |

                       ऐसा कह कर पत्नी सहित भगवान शिव अपनी अंश रूपिणी मूर्ति को प्रकट करके वेदी के मध्य भाग में विराजमान हो गए तत्पश्चात स्वजनों पर स्नेह रखने वाले परमेश्वर शंकर दक्ष से विदा ले अपनी पत्नी सती शिवा के साथ कैलाश जाने को उद्धत हुए उस समय उत्तम बुद्धि वाले दक्षिणी विनय से मस्तक झुका हाथ जोड़ भगवान वृषभ ध्वज की प्रेम पूर्वक स्तुति की फिर श्री विष्णु आदि समस्त देवताओं मुनियों और शिव गणों ने नमस्कार पूर्वक नाना प्रकार की स्तुति करके बड़े आनंद से जय जयकार किया तदनंतर दक्ष की आज्ञा से भगवान शिव ने प्रसन्नता पूर्वक सती को वृषभ की पीठ पर बिठाया और स्वयं भी उस पर आरूढ़ हो प्रभु हिमालय पर्वत की ओर चले भगवान शंकर ने समीप सब पर बैठी हुई सुंदर दांत और मनोहर हंस वाली क्षति अपने नील श्याम वर्ण के कारण चंद्रमा में नीली लेखा के समान शोभा पा रही थी उस समय उन नव दंपति की शोभा देख श्री विष्णु आदि समस्त देवता मरीचि आदि महर्षि तथा दूसरे लोग ठगे से रह गए हिलडुल भी न सके तथा दक्ष भी मोहित हो गए तत्पश्चात कोई बाजे बजाने लगे वह दूसरे लोग मधुर स्वर से गीत गाने लगे कितने ही लोग प्रसन्नता पूर्वक शिव के कल्याणमयी उज्जवल यश का गान करते हुए उनके पीछे-पीछे चले भगवान शंकर ने बीच रास्ते से दक्ष को प्रसन्नता पूर्वक लौटा दिया और स्वयं प्रेमा कुल हो प्रथम गणों के साथ अपने धाम को जहां पहुंचे यदि भगवान शिव ने विष्णु आदि देवताओं को भी विदा कर दिया था तो भी वह बड़ी प्रसन्नता और भक्ति के साथ उन्हें उनके साथ हो लिए उन सब देवताओं प्रथम गणों तथा अपनी पत्नी पति के साथ हर्ष भरे शंभू हिमालय पर्वत से सुशोभित अपने कैलाश धाम में जा पहुंचे वहां जाकर उन्होंने देवताओं मुनियों तथा दूसरे लोगों का बहुत आदर सम्मान करके उन्हें प्रसन्नता पूर्वक विदा किया शंभू किया गया ले विष्णु आदि सब देवता तथा मुनि नमस्कार और स्तुति करके मुख पर प्रसन्नता की छाप लिए अपने अपने धाम को चले गए सदाशिव का चिंतन करने वाले भगवान शिव भी अत्यंत आनंदित हो हिमालय के शिखर पर रहकर अपनी पत्नी दक्ष कन्या सती शिवा के साथ विहार करने लगे , इस प्रकार परम कृपालु परमेश्वर शिव ने शिवा [सती] से विवाह सम्पन्न हुआ , 

               अब आपको यह सम्पूर्ण सत्य ज्ञान प्रमाण सहित सत्य की शोध मे आप समग्र मानव समाज के लिए शिव + शिवा = विवाह का सम्पूर्ण प्रसंग आपकी सेवा मे प्रस्तुत किया है जिनका सत्य श्रेय पवित्र “शिवपुराण” को समर्पित है  |

नरेंद्र वाला 

विक्की राणा

‘सत्या की शोध’

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