नमस्कार,
में परमवीर चक्र पाना चाहता हु | लेफ़्टेनेंट मनोज कुमार पाण्डे
कैप्टन मनोज कुमार पांडेय (25 जून 1975, सीतापुर, उत्तर प्रदेश — 3 जुलाई 1999, कश्मीर), भारतीय सेना के अधिकारी थे जिन्हें सन १९९९ के करगिल युद्ध में असाधारण वीरता के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
मनोज कुमार पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के रूढ़ा गाँव में हुआ था। मनोज नेपाली क्षेत्री परिवार में पिता गोपीचन्द्र पांडेय तथा माँ मोहिनी के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे। मनोज की शिक्षा सैनिक स्कूल लखनऊ में हुई और वहीं से उनमें अनुशासन भाव तथा देश प्रेम की भावना संचारित हुई जो उन्हें सम्मान के उत्कर्ष तक ले गई। इन्हें बचपन से ही वीरता तथा सद्चरित्र की कहानियाँ उनकी माँ सुनाया करती थीं और मनोज का हौसला बढ़ाती थीं कि वह हमेशा जीवन के किसी भी मोड़ पर चुनौतियों से घबराये नहीं और हमेशा सम्मान तथा यश की परवाह करे। इंटरमेडियेट की पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज ने प्रतियोगिता में सफल होने के पश्चात पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला लिया। प्रशिक्षण पूरा करने के पश्चात वे 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बने।
करियर
“जिस समय राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के च्वाइस वाले कालम जहाँ यह लिखना होता हैं कि वह जीवन में क्या बनना चाहते हैं क्या पाना चाहते हैं वहां सब लिख रहे थे कि, किसी को चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ बनना चाहता हैं तो कोई लिख रहा था कि उसे विदेशों में पोस्टिंग चाहिए आदि आदि, उस फार्म में देश के बहादुर बेटे ने लिखा था कि उसे केवल और केवल परमवीर चक्र
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रशिक्षण के पश्चात वे बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवां गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में तैनात हुये। उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। एक बार मनोज को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया। उनके लौटने में बहुत देर हो गई। इससे सबको बहुत चिंता हुई। जब वह अपने कार्यक्रम से दो दिन देर कर के वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देर का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया, ‘हमें अपनी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।’ इसी तरह, जब इनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था, तब मनोज युवा अफसरों की एक ट्रेनिंग पर थे। वह इस बात से परेशान हो गये कि इस ट्रेनिंग की वजह से वह सियाचिन नहीं जा पाएँगे। जब इस टुकड़ी को कठिनाई भरे काम को अंजाम देने का मौका आया, तो मनोज ने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें ‘बाना चौकी’ दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें ‘पहलवान चौकी’ मिले। यह दोनों चौकियाँ दरअसल बहुत कठिन प्रकार की हिम्मत की माँग करतीं हैं और यही मनोज चाहते थे। आखिरकार मनोज कुमार पांडेय को लम्बे समय तक 19700 फीट ऊँची ‘पहलवान चौकी’ पर डटे रहने का मौका मिला, जहाँ इन्होंने पूरी हिम्मत और जोश के साथ काम किया।[3]
पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध के कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था जिसको फ़तह करने के लिए कमर कस कर उन्होने अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की अगुवाई करते हुए दुश्मन से जूझ गए और जीत कर ही माने। हालांकि, इन कोशिशों में उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। वे 24 वर्ष की उम्र जी देश को अपनी वीरता और हिम्मत का उदाहरण दे गए।[4]
उनके जीवन आधारित फिल्म
वर्ष 2003 में एक फिल्म एल ओ सी कारगिल बनी, जिसमें उनके किरदार को अजय देवगन ने अभिनीत किया।
सम्मान
कारगिल युद्ध में असाधारण बहादुरी के लिए उन्हें सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से अलंकृत किया गया। सारा देश उनकी बहादुरी को प्रणाम करता है।
करगील वीर शहीद केप्टन मनोज पांडे के पिताजी की जुबानी शहीद सपूत की कहानी
कारगिल युद्ध के दौरान अदम्य साहस का परिचय देकर देश के लिए शहीद हुए महान स लेफ्टिनेंट मनोज के पिता आज भी अपने पुत्र का जिक्र आने पर शहादत का गर्व प्रदर्शित करते हैं.
लेकिन वह अपने पुत्र को खोने की पीड़ा भी नहीं छुपा पाते हैं. लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत परम वीर चक्र से नवाजा गया था.
ऑपरेशन विजय के दौरान 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे खालूबार को फतह करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे. कारगिल युद्ध की 15वीं बरसी के मौके पर शहीद सैन्य अधिकारी मनोज कुमार पांडे के पिता गोपीचंद पांडे भावुक हो गए.
सवाल किए जाने पर उनकी वाणी में एक पिता का स्नेह, एक भारतीय नागरिक की प्रशंसा और अपने युवा पुत्र को खोने की पीड़ा साफ तौर पर झलकती हुयी महसूस हुयी.
शहीद अधिकारी के पिता ने जैसे ही अपने पुत्र की बहादुरी और उसके जीवन के बारे में बताया तो मानो सुनने वाले के मन और मस्तिष्क में शहीद की अनेक छवियां दिखायी दीं. पांडे ने बताया कि उनका पुत्र सेना में जाने के पहले ही सदैव दूसरे की कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करता था. पुणे के पास खडकवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में कड़े प्रशिक्षण, अफसर की वर्दी धारण करने, मोर्चे पर जाने और बर्फीले और ऊंचे पर्वत पर युद्ध संबंधी बातों के बारे में भी उन्होंने बताया.
पांडेजी बताते हैं कि मनोज अलग सोच और ओजस्वी व्यक्तित्व का धनी था. वे अपने आप को भाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें उसका पिता बनने का मौका मिला. अपने पुत्र की विशेषताएं बताते हुए वे कहते हैं कि मनोज समझता था कि दौलत और अन्य सारी चीजें चली जाती हैं, लेकिन सिर्फ नाम रह जाता है.
पिताजी बताते हैं कि उनके पुत्र मनोज के लिए कोई भी व्यक्ति छोटा नहीं था. अकादमी में एक आदमी \’कैडेट्स\’ के जूते पालिश किया करता था. एक बार जब वह खडकवासला भ्रमण पर गये थे तब उनके बेटे ने उस आदमी से उनका परिचय करवाया. उस व्यक्ति ने पांडेजी को बताया कि वह जूते चमकाते हुए बूढ़ा हो गया, लेकिन मनोज पहले ऐसे कैडेट थे, जिन्होंने उसको \’दादा\’ कहकर संबोधित किया.
आजकल के युवाओं के बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने की ललक और दौलत के पीछे भागने की होड़ के बारे में पूछने पर उन्होंने जवाब दिया कि पैसा महत्वपूर्ण है, लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा करना भी अनिवार्य है. उनका मानना है कि राजनीतिज्ञों को आगे आना चाहिए और सरकार को इस दिशा में कुछ ध्यान देना चाहिए. ऐसे राजनेताओं की जरूरत है जो युवाओं का मार्गदर्शन कर सकें.
पांडेजी की चार संतानों में मनोज सबसे बडे थे. पांडे दंपत्ति के एक पुत्री और दो पुत्र हैं. भारत का सर्वश्रेष्ठ वीरता पदक राष्ट्रपति ने पांडे को उनके जांबाज पुत्र के पराक्रम के लिए प्रदान किया था. पदक के साथ दिया गया प्रशस्ति पत्र एक वीरगाथा से कम नहीं है. प्रशस्ति पत्र के अनुसार बटालिक क्षेत्र में \’जौबार टॉप\’ पर फतह और अन्य आक्रमणों की श्रृंखला में लेफ्टिनेंट पांडे ने हिस्सा लिया और कई घुसपैठियों को मारकर औरों को पीछे खदेड़ा.
जुलाई 2 और 3, 1999 की दरमियानी रात को उनकी पलटन खालूबार की ओर कूच करते हुए अपने अंतिम लक्ष्य की तरफ बढ़ रही थी, तब आसपास की पहाड़ियों से दुश्मनों ने गोलियों की बौछार कर दी. लेफ्टिनेंट पांडे को आदेश दिया गया कि शत्रु के ठिकाने नेतस्तनाबूत कर दिए जाएं ताकि वाहिनी सूर्योदय से पहले सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाए.
दुश्मन की भारी गोलीबारी के बावजूद युवा अधिकारी ने तेजी से अपनी पलटन को एक बेहतर जगह ले जाते हुए एक दल को दाहिने तरफ के ठोर तबाह करने को भेज दिया और स्वयं बांयी तरफ के ठोर की तरफ बढ़ गये.
पहले ठोर पर हमला करते हुए उन्होंने शत्रु के दो सिपाहियों को मार गिराया और दूसरे ठोर पर भी इतने ही सिपाही मारे. तीसरे ठोर पर आक्रमण करते हुए उनके कंधे और पांवों में गंभीर चोंटे आयीं. अपने घावों की परवाह किये बिना वे हमले का नेतृत्व करते रहे और अपने जवानों की हौंसला अफजाई करते हुए एक हथगोले से चौथे ठोर की धज्जियां उड़ा दीं. इसी दौरान उनके सर पर एक से अधिक गोलियां लगीं और वे वीर गति को प्राप्त हुए. लेफ्टिनेंट पांडे के इस अदम्य साहस और नेतृत्व के कारण भारतीय सैनिकों को खालूबार पर विजय हासिल करने में मदद मिली.
प्रारंभिक जीवन और सैनिक स्कूल में जाना – शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का जन्म लखनऊ से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर सीतापुर जिले में कमलापुर के पास एक छोटे से गाँव में 25 जून 1975 को हुआ था, छोटे से गाँव में अपने बेटे के लिए पढ़ाई की अच्छी सुविधा न देखकर कैप्टन के पिता श्री गोपीचन्द्र पाण्डेय ने बेटे के अच्छे भविष्य के लिए लखनऊ जाना ही उचित समझा और वह अपनी पत्नी श्रीमती ब्रज्मोहिनी देवी और बेटे के साथ लखनऊ में आकर रहने लगे !
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी – उन्हें राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में 6 जून 1997 को कमीशन मिला, जिस समय राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के फार्म यह भरवाया जा रहा था कि आप जीवन में क्या बनना चाहते हो, क्या पाना चाहते हो तो उस समय देश के इस सबसे होनहार बेटे ने बड़े गर्व से उस फार्म पर स्वर्णअच्छरों में लिखा था कि मैं परमवीर चक्र पाना चाहता हूँ I एक वह दिन था कि उस दिन के बाद इस देश के इस सच्चे सपूत ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा I देश के इस सच्चे सिपाही को 11 गोरखा राइफल में कमीशन मिलने के बाद पहली पोस्टिंग ही श्रीनगर में मिली जोकि आतंकवादियों की गतिविधियों के हिसाब से भारत का सबसे अधिक संवेदनशील इलाका था I
कुछ दिन श्रीनगर में रहने के बाद लेफ्टीनेंट पाण्डेय को दुनिया के सबसे ऊँचे 18,000 फुट की उंचाई के मिलिट्री बेस कैम्प सियाचीन भेज दिया गया, जिसका तापमान सामान्य से माइनस चालीस डिग्री (-40) सेल्सियस रहता हैं, उनके अफसरों ने उनकी कड़ी मेहनत और देश के प्रति समर्पण को देखते हुए कमांडो ट्रेनिग के लिए भेज दिया था I
यही कारण था कि इनके सीनियर अफसरों ने इनका नाम शौर्य चक्र के लिए भेजा था I
4 मई 1999 ऑपरेशन रक्षक करगिल सेक्टर
अततः वह दिन आ ही गया जिसका हर वीर सिपाही को इंतज़ार होता हैं, जिसके लिए हर एक वीर सैनिक रोज जीता हैं ….देश के मान, सम्मान और गौरव की रक्षा करने का I
लेफ्टीनेंट पाण्डेय ही वह पहले अफसर थे जिन्होंने स्वयं ही आगे बढ़कर सबसे पहले इस युद्ध में शामिल होने के लिए अपना नाम सेना को और अपने सीनीयर अफसरों को भेजा था, अगर लेफ्टीनेंट चाहते तो उन्हें छुट्टी मिल सकती थी क्योंकि उनकी यूनिट अभी-अभी सियाचिन से होकर वापस आई थी जिसे आराम की भी जरूरत थी लेकिन इस वीर सिपाही ने आराम करने की बजाय देश की रक्षा के लिए जान की बाजी लगाना ही ज्यादा उचित समझा और वह पहुँच गए कारगिल सेक्टर I
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय के पिता जी ने बताया की उस समय पाकिस्तान के साथ मेरा बेटा युद्ध कर रहा था हमें इसके समाचार मिल रहे थे लेकिन एक महीने पहले से फोन आने बंद हो गए थे हाँ इतना जरूर था कि पत्रों के माध्यम से बातचीत हो जाती थी, जिस समय मेरा बेटा युद्ध के मैदान में था उस समय हम भगवान् से बस एक ही दुआ कर रहे थे कि मेरा बेटा कभी पीछे मुड कर न देखे सदा दुश्मनों का सामना करते हुए आगे और आगे ही बढ़ते रहे I यही बात हम पत्रों के माध्यम से अपने बेटे को भी कहते थे I
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय की माता जी कहती हैं कि उनका आखिरी फोन 26 मई 1999 को आया था, उन्होंने आगे कहा कि अप्रैल से लेकर मई तक में उनके चार फ़ोन आये थे, वह एक-एक हफ्ते में फ़ोन करते थे, हाँ उनका एक पत्र जरूर आया था वह हमें 22 या फिर 23 जून को मिला था I जिसमें उन्होंने लिखा था कि यहाँ पर लड़ाई बहुत ही भयंकर चल रही हैं इसलिए हम कहीं आ या फिर जा नहीं सकते हैं, अभी इन लोगों को भगाने में हमें लगभग 1 महीना और लगेगा, उन्होंने आगे लिखा था कि मम्मी-पापा आप भगवान् पर भरोषा रखना और भगवान् से प्रार्थना करना कि वह हमें हमारे मकसद में कामयाबी दिलायें !
और इस बहादुर देश भक्त की माँ ने भी जब उन्हें पत्र भेजा तो उसमें उन्होंने भी यही लिखा था कि बेटा आगे ही बढ़ते रहना कभी पीछे मुड कर मत देखना !
और आज 2 जुलाई 1999 की आधी रात हैं और कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय और उनकी यूनिट एक-एक कर दुश्मनों का सफाया करते हुए कारगिल सेक्टर की एक चोटी खालूरबार हिल पर पहुँच चुके थे और दुश्मनों के साथ लड़ते हुए उन्होंने खालूरबार के पास तीन बंकरों को दुश्मन से खाली करवाया और दुश्मन को मार भगाया I
लेकिन तब तक देश के इस बहादुर और होनहार बेटे के कंधे और घुटने में गोलियां लग चुकी थी लेकिन फिर भी इस बहादुर बेटे ने हार नहीं मानी और न ही पीछे हटे बल्कि वह लगातार आगे बढ़ते और आगे ही बढ़ते चले गए और खालूबार टॉप के आखिरी बंकर को भी दुश्मन से खाली करवाने के लिए आगे बढे, तभी दुश्मन की एक गोली ने उनके सीने को भेद दिया लेकिन इसके बावजूद भी इस बहादुर सिपाही ने धैर्य नहीं खोया और आखिरी बंकर को भी ग्रेनेट फेंकर दुश्मन से खाली ही करवा लिया I और इसी आखिरी बंकर के खाली करवाने के साथ ही देश के इस बहादुर बेटे ने अपने जीवन की आखिरी साँसे लेते हुए 3 जुलाई 1999 को इस देश और दुनिया को अलविदा कह दिया I
अंतिम यात्रा – 7 जुलाई 1999 की शाम को देश के इस वीर सिपाही के पार्थिव शरीर को सरकार ने एक स्पेशल विमान के द्वारा लखनऊ भेजा गया और 8 जुलाई 1999 को इनके पार्थिव शारीर को इनके परिवार को अंतिम दर्शन के लिए सौंप दिया गया I
उस सुबह पूरा का पूरा लखनऊ अपनी आँखों में आँशू भरे हुए अपने सबसे बहादुर बेटे को अंतिम बिदाई दे रहा था I और इसी के साथ देश से इस बहादुर बेटे ने अपनी जीवन लीला को समेट कर देश के लिए शहीदी की चादर- तिरंगा ओढ़ लिया | शहीद के ख्वाब यही होते है और केप्टन वीर शहीद मनोज पांडे का भी यही सपना था और खुद ने अपना सपना साकार करके अपना जीवन भारत माँ के चरनोमे समर्पित कर दिया | भारत माँ के ऐसे वीर सपुतो के एहसान भारत वासी कभी भी चुका नहीं पाएंगे |
प्रारंभिक जीवन और सैनिक स्कूल में जाना – शहीद कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का जन्म लखनऊ से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर सीतापुर जिले में कमलापुर के पास एक छोटे से गाँव में 25 जून 1975 को हुआ था, छोटे से गाँव में अपने बेटे के लिए पढ़ाई की अच्छी सुविधा न देखकर कैप्टन के पिता श्री गोपीचन्द्र पाण्डेय ने बेटे के अच्छे भविष्य के लिए लखनऊ जाना ही उचित समझा और वह अपनी पत्नी श्रीमती ब्रज्मोहिनी देवी और बेटे के साथ लखनऊ में आकर रहने लगे !
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी – उन्हें राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में 6 जून 1997 को कमीशन मिला, जिस समय राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के फार्म यह भरवाया जा रहा था कि आप जीवन में क्या बनना चाहते हो, क्या पाना चाहते हो तो उस समय देश के इस सबसे होनहार बेटे ने बड़े गर्व से उस फार्म पर स्वर्णअच्छरों में लिखा था कि मैं परमवीर चक्र पाना चाहता हूँ I एक वह दिन था कि उस दिन के बाद इस देश के इस सच्चे सपूत ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा I देश के इस सच्चे सिपाही को 11 गोरखा राइफल में कमीशन मिलने के बाद पहली पोस्टिंग ही श्रीनगर में मिली जोकि आतंकवादियों की गतिविधियों के हिसाब से भारत का सबसे अधिक संवेदनशील इलाका था I
कुछ दिन श्रीनगर में रहने के बाद लेफ्टीनेंट पाण्डेय को दुनिया के सबसे ऊँचे 18,000 फुट की उंचाई के मिलिट्री बेस कैम्प सियाचीन भेज दिया गया, जिसका तापमान सामान्य से माइनस चालीस डिग्री (-40) सेल्सियस रहता हैं, उनके अफसरों ने उनकी कड़ी मेहनत और देश के प्रति समर्पण को देखते हुए कमांडो ट्रेनिग के लिए भेज दिया था I
लेफ्टीनेंट पाण्डेय ही वह पहले अफसर थे जिन्होंने स्वयं ही आगे बढ़कर सबसे पहले इस युद्ध में शामिल होने के लिए अपना नाम सेना को और अपने सीनीयर अफसरों को भेजा था, अगर लेफ्टीनेंट चाहते तो उन्हें छुट्टी मिल सकती थी क्योंकि उनकी यूनिट अभी-अभी सियाचिन से होकर वापस आई थी जिसे आराम की भी जरूरत थी लेकिन इस वीर सिपाही ने आराम करने की बजाय देश की रक्षा के लिए जान की बाजी लगाना ही ज्यादा उचित समझा और वह पहुँच गए कारगिल सेक्टर I
कारगिल युद्ध के दौरान ही लेफ्टीनेंट मनोज कुमार पाण्डेय को पदोंनात्ति (प्रमोशन) दिया गया और उन्हें बना दिया गया लेफ्टीनेंट से कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय और अब इस वीर सिपाही ने शरू कर दिया था कारगिल सेक्टर में दुश्मन के गोले, बारूद और तोपों का सामना करना और चुन-चुन कर पाकिस्तानी घुसपैठियों का सफाया करना I
4 मई से ही कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय ने और उनकी सैनिक टुकड़ी ने बहुत ही बहादुरी के साथ दुश्मनों का चुन-चुन का सफाया करना शरू कर दिया था I
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय के पिता जी ने बताया की उस समय पकिस्तान के साथ मेरा बेटा युद्ध कर रहा था हमें इसके समाचार मिल रहे थे लेकिन एक महीने पहले से फोन आने बंद हो गए थे हाँ इतना जरूर था कि पत्रों के माध्यम से बातचीत हो जाती थी, जिस समय मेरा बेटा युद्ध के मैदान में था उस समय हम भगवान् से बस एक ही दुआ कर रहे थे कि मेरा बेटा कभी पीछे मुड कर न देखे सदा दुश्मनों का सामना करते हुए आगे और आगे ही बढ़ते रहे I यही बात हम पत्रों के माध्यम से अपने बेटे को भी कहते थे I
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय की माता जी कहती हैं कि उनका आखिरी फोन 26 मई 1999 को आया था, उन्होंने आगे कहा कि अप्रैल से लेकर मई तक में उनके चार फ़ोन आये थे, वह एक-एक हफ्ते में फ़ोन करते थे, हाँ उनका एक पत्र जरूर आया था वह हमें 22 या फिर 23 जून को मिला था I जिसमें उन्होंने लिखा था कि यहाँ पर लड़ाई बहुत ही भयंकर चल रही हैं इसलिए हम कहीं आ या फिर जा नहीं सकते हैं, अभी इन लोगों को भगाने में हमें लगभग 1 महीना और लगेगा, उन्होंने आगे लिखा था कि मम्मी-पापा आप भगवान् पर भरोषा रखना और भगवान् से प्रार्थना करना कि वह हमें हमारे मकसद में कामयाबी दिलायें !
और इस बहादुर देश भक्त की माँ ने भी जब उन्हें पत्र भेजा तो उसमें उन्होंने भी यही लिखा था कि बेटा आगे ही बढ़ते रहना कभी पीछे मुड कर मत देखना !
और आज 2 जुलाई 1999 की आधी रात हैं और कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय और उनकी यूनिट एक-एक कर दुश्मनों का सफाया करते हुए करगिल सेक्टर की एक चोटी खालूरबार हिल पर पहुँच चुके थे और दुश्मनों के साथ लड़ते हुए उन्होंने खालूरबार के पास तीन बंकरों को दुश्मन से खाली करवाया और दुश्मन को मार भगाया I
लेकिन तब तक देश के इस बहादुर और होनहार बेटे के कंधे और घुटने में गोलियां लग चुकी थी लेकिन फिर भी इस बहादुर बेटे ने हार नहीं मानी और न ही पीछे हटे बल्कि वह लगातार आगे बढ़ते और आगे ही बढ़ते चले गए और खालूबार टॉप के आखिरी बंकर को भी दुश्मन से खाली करवाने के लिए आगे बढे, तभी दुश्मन की एक गोली ने उनके सीने को भेद दिया लेकिन इसके बावजूद भी इस बहादुर सिपाही ने धैर्य नहीं खोया और आखिरी बंकर को भी ग्रेनेट फेंकर दुश्मन से खाली ही करवा लिया I और इसी आखिरी बंकर के खाली करवाने के साथ ही देश के इस बहादुर बेटे ने अपने जीवन की आखिरी साँसे लेते हुए 3 जुलाई 1999 को इस देश और दुनिया को अलविदा कह दिया I
अंतिम यात्रा – 7 जुलाई 1999 की शाम को देश के इस वीर सिपाही के पार्थिव शरीर को सरकार ने एक स्पेशल विमान के द्वारा लखनऊ भेजा गया और 8 जुलाई 1999 को इनके पार्थिव शारीर को इनके परिवार को अंतिम दर्शन के लिए सौंप दिया गया I
उस सुबह पूरा का पूरा लखनऊ अपनी आँखों में आँशू भरे हुए अपने सबसे बहादुर बेटे को अंतिम बिदाई दे रहा था I और इसी के साथ देश से इस बहादुर बेटे ने अपनी जीवन लीला को समाप्त कर लिया और पीछे छोड़ गया भारत वासियों के लिए अपनी वीर गाथायें !! करगिल युद्ध 1999 की वीर गाथाए इंटरनेट और कई लेखकोने/समाचार पत्रो ने प्रस्तुत किए है उन सभी का प्रमाण मिलता है |
क्या सोच थी , क्या जज़्बा था , देश के प्रति ऐसे प्रेम करने वाले वीर सपूत जन्म ही देश के लिए लेते है ,और देश के लिए ही मरमिटते है | इस उम्र मे युवा वर्ग बोयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड खेलने मे मशगूल रहते है, और एक दूसरे के लिए जान भी गवाते है , उनके बाद सवाल करते है की क्या पाया ?क्या खोया ? उन नौजावान के मात-पिता के दिल पर जीवन भर क्या बीतती है, वो तो वही जानते है | और यहा परमवीर चक्र विजेता शहीद केप्टन मनोज पांडे सर का सिर्फ नाम लिखने के लिए दिल तैयार ही नहीं होगा ,इनके नाम के आगे पीछे उनके जीवन की उपलब्बधिया का प्रमाण होता है | इसी उम्र मे शहीद केप्टन मनोज पांडे सर जैसे भारत माँ के लाल के पिताजी आज भी उनके वीर सपूत परमविरचक्र विजेता बेटे का नाम अपनी जुबा पर लाते ही बहुत बड़े गर्व से अपना सर ऊंचा करते हुए नाम लेते है |
“सत्य की शोध” की टीम ‘परमविरचक्र’ विजेता शहीद वीर मनोज कुमार पांडे सर को दंडवत प्रणाम करके सत सत सर्हृदय नमन करते है |
जय हिन्द
आपका सेवक -लेखक
नरेंद्र वाला
[विक्की राणा]
‘सत्य की शोध’