नमस्कार ,
जे.कृष्णमूर्ति का बाल जीवन
आंध्र प्रदेश में मद्रास और बेंगलुरु के बीच मदनापल्ली नाम का एक छोटासा गांव जिसमें तेलुगु भाषी मध्यमवर्ग के ब्राह्मण कुटुंब में जिद्दू नारायणय्या , सरकारी दफ्तर में नौकरी करते हैं, नारायणय्या के दादा ईस्ट इंडिया कंपनी में काम कर चुके थे, और संस्कृत के प्रखर विद्धवान थे,नारायणय्या के पिता भी विद्वान थे ,सरकारी सेवा में मद्रास यूनिवर्सिटी में से स्नातक होकर ब्रिटिश सरकार में रेवेन्यू डिपार्टमेंट में काम करते थे सरकारी नौकरी पूर्ण होने के बाद वह जिला न्यायाधीश थे ,उन्होंने संजीवम्मा के साथ विवाह किया था |
नारायणय्या और संजीवम्मा को 11 संतान थी , जिनमें से 5 संतान बाल्यावस्था में ही गुजर गए थे ,आठवें क्रम पर जन्म लेने वाले बालक का नाम कृष्णमूर्ति था, सुंदर कंठ वाले सुंदर गा भी सकते थे, और धार्मिक मनोवृति वाले संजीवरम्मा को ऐसी अनुभूति हुई थी ,की आठवीं संतान के समय जन्म लेने वाले बालक महान विभूति होंगे ,रूढ़िवादी हिंदू रिवाज के विरुद्ध उन्होंने पूजा के खंड में प्रसूति पूर्व जाने की और प्रार्थना करने का आग्रह रखा था ,उनके बाद उनके बाजू के खंड में बालक को जन्म दिया था | यानी कृष्णमूर्ति को जन्म दिया था |पहले के अनुभवसे इस समय प्रसूति कष्टदाई नहीं थी ,प्रसूति समय वह राम-राम बोला करते थे ,संतानों में कृष्णमूर्ति का क्रम आठवां क्रम था ,श्रीकृष्ण भगवान भी उनके माता-पिता के आठवें संतान ही तो थे, इसलिए नारायणय्या और संजीवम्मा ने खुद के आठवें संतान का नाम कृष्णमूर्ति रखा था |
11 में 1895 शनिवार रात्रि के 12:30 बजे कृष्णमूर्ति का जन्म हुआ था, नारायणय्या के कहने पर रात को सोते समय संजीवम्मा ने एक सुंदर गीत भी गाया था | नारायणय्या कृष्णमूर्ति के जन्म के समय बाजू के एक छोटे से कमरे में घड़ी को देखते देखते बालाक के जन्म की राह देखते थे ,हिंदू ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रात के 4:00 बजे दिन शुरू हुआ कहते थे , मानते थे कृष्णमूर्ति की जन्म तारीख 11 बताई जाती हैं, परंतु पाश्चात्य देशों की प्रणाली के अनुसार दिन रात के 12:00 से गिना जाता था, कृष्णमूर्ति की जन्मतिथि 12 में 1895 मानी जाती है | अब कृष्णमूर्ति के संदर्भ में सभी साहित्य में उनकी जन्मतिथि 11 में 1895 सर्व स्वीकृत देखने मिलती है |
कृष्णमूर्ति के जन्म के दूसरे दिन उनकी जन्म कुंडली तैयार करने वाले उन प्रदेश के बहुत विख्यात ज्योतिष शास्त्री श्री कुमारा श्रोतुलु ने कृष्णमूर्ति के पिता को कहा था कि कृष्णमूर्ति एक महान पुरुष होंगे ,यह भविष्यवाणी भविष्यवाणी झूठी साबित हो, ऐसे लक्षण कृष्णमूर्ति के थे | 2 साल की उम्र में ऐसा मलेरिया हुआ की नाक मैं से लहू बहने लगा, इसलिए उनके बचने की कोई आशा थी नहीं | अत्यंत नादूरस्थ तबीयत होने के कारण नियमित स्कूल पर जा नहीं सके ,शिक्षा में भी बहुत पीछे रहते थे, फिर भी ज्योतिषी कृष्णमूर्ति के पिता को आशा देते रहते थे |उम्मीद बताते रहते थे |कि यह बालक जरूर एक महान व्यक्ति बनेगा |
कृष्णमूर्ति के पिता की ट्रांसफर नवंबर 1896 में कुडप्पा शहर में हुई थी, वह शहर जिला में मलेरिया का सबसे ज्यादा असर वाला था | 1890 में उनकी ट्रांसफर कादीरी में हुई थी , वहां मलेरिया की बीमारी थोड़ी कम थी ,कादिरी में कृष्णमूर्ति को 6 वर्ष की वय में जनोई दी गई थी | और स्कूल में दाखिला करवाया था |
कृष्णमूर्ति से 3 साल छोटे भाई नित्यानंद भी कृष्णमूर्ति के साथ स्कूल पर जाना चाहते थे ,दोनों भाइयों के बीच अच्छा नाता था नित्यानंद तेजस्विता और कृष्णमूर्ति मध्यम कक्षा के अस्पष्ट और कल्पना वीहारी था |
बुद्धि में मंद और शारीरिक कमजोर दिखते कृष्णमूर्ति ह्रदय से बहुत दयालु थे ,स्कूल में गरीब बच्चों को खुद की पेन, पैन्सिल, स्लेट , पुस्तक दे देते थे ,घर पर भिक्षा मांगने आने वाले सभी भक्तों के बीच देने के लिए रखा हुआ सभी चावल पहले भिक्षुक को ही दे देता था |और बाद में आने वाले भिक्षुक के लिए चावल देने के लिए माता के पास फिर से मांगने जाता था ,घर में बनी हुई मिठाई में से भी कृष्णमूर्ति खुद के हिस्से में आने वाली मिठाई ही लेते थे ,और खुद के हिस्से में से भी थोड़ी मिठाई छोटे भाई नित्यानंद को दे देते थे |नित्यानंद कृष्णमूर्ति से ज्यादा मांगते ही थे और कृष्णमूर्ति उनको प्रेम से दे देता था |
युवा जे.कृष्णमूर्ति
कृष्णमूर्ति और नित्यानंद माता के साथ रोज मंदिर जाते थे| कृष्णमूर्ति में पहले से ही धार्मिकता के लक्षण देखने मिलते थे, युवा वय मैं ही अध्यात्म क्षेत्रमे प्रचलित हुए थे |कृष्णमूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के बीच मेल और साम्यता देख सकते थे, बचपन मैं भी कृष्णमूर्ति धार्मिकता के लक्षण दिखाई देते थे ,ऐसे ही उनको यंत्रों में भी बहुत गहरा रस था |एक समय इनके पिता की दीवार घड़ी खोलकर उन्होंने सभी हिस्से अलग अलग कर दिए थे ,और फिर से घड़ी चालू भी कर दी थी ,उन दिन स्कूल पर नहीं गया , और जब तक घड़ी तैयार और चालू ना हो सकी तब तक खाना भी नहीं खाया |
ऐसे बाल कृष्णमूर्ति अंतरमूर्ख , शून्यमनस्क , लज्जा वाले कल्पनाशील और सपनों मे रचे रहने वाले थे, वह अत्यंत बारीकाइसे कुदरत का निरीक्षण करता था, लंबे समय तक पैरों की पलाठ लगाके वृक्षों को, जंतुओं को ,बादलों को, देखता रहता था |कृष्णमूर्ति का कुदरत के साथ का नाता जीवन के अंत तक चालू रहा था |मृत्यु के अगले दिन वृक्ष से नीचे बैठकर और सोते हुए दूर दिखाई देने वाले पर्वतों को देखने का बहुत पसंद था ,घर के पास ही वृक्ष के नीचे उनके प्रवचन होते थे |अन्यत्र भी खुले में कुदरत के सानिध्य में वह प्रवचन देते थे |चलने घूमने जाने के समय भी कुदरती वातावरण को ही पसंद करते थे, उनमें निसर्ग तरफ का प्रेम प्रकट होता था |
कृष्णमूर्ति के पिताकी नौकरी में बारंबार बदली होती थी ,तथा कृष्णमूर्ति को मलेरिया का बुखार भी बारंबार आया करता था, एक समय तो पूरा वर्ष स्कूल पर जा नहीं सका था | इनकी असर उनके अभ्यास पर भी पड़ी थी, उनके कक्ष में लगभग लास्ट क्रम पर आखिरी क्रम पर रहता था |और उनको पुस्तक का ज्ञान जरा भी पसंद नहीं था ,उनको 3 माइल यानी 3 किलोमीटर चल के स्कूल पर जाना पड़ता था | घर पर वापस आते समय भी 3 माइल चलके ही आते थे |
स्कूल के शिक्षक कृष्णमूर्ति को शारीरिक शिक्षा देते थे ,एक समय उनको वर्ग के बाहर खड़े रहने की शिक्षा दी गई थी ,स्कूल का समय पूरा हुआ सभी बच्चे घर पर चले गए, फिर भी वह वहां के वहां खडा था ,जब उनको कहने में कि अब घर जा ,तब ही वह घर पर गए | ऐसी स्थिति की असर उनके चित् पर इतनी हुई थी की खुद के जीवन बोध में शिक्षा, बदला ,हरीफाई, कहींजाती शिस्त, से मुक्त रखने की और बालकों का शारीरिक मानसिक स्नेहसफर पूर्ण रूप से प्रफुल्लि हो ऐसी हिमायत करते थे |
1903 में कृष्णमूर्ति की सबसे बड़ी बहनका 20 साल की उम्र में मैं ही अवसान हुआ था | वह बहन बहुत धार्मिक थी,उनके मृत्यु के बाद पहली बार कृष्णमूर्ति को दूरदर्शी शक्ति प्राप्त है |ऐसा फलित हुआ ,उनके माता भी मृत पुत्री को देख सकते थे, ऐसा कृष्णमूर्ति ने 18 साल की साल में लिखा था |
दिसंबर उन्नीससौ पांच में कृष्णमूर्ति के माता संजीवम्मा का अवसान हुआ ,पिता अन्यत्र रुके होने के कारण बच्चों की देखभाल लेने वाला कोई नहीं रहा | कृष्णमूर्ति बारंबार उनकी माता को देख सकते थे ,ऐसा उल्लेख कृष्णमूर्ति ने 18 वर्ष की वहीं में लिखी हुई नोंद में किया था | उस बात को उनके पिता ने भी एक लिखित नोन्ध में समर्थन दिया था |
कृष्णमूर्ति ने और नित्यानंद ने 17 जनवरी 1907 के दिन मदनापल्ली की हाई स्कूल में दाखिला लिया था |और वह स्कूल मे जनवरी 1909 तक रहे थे |
कृष्णमूर्ति के घर से दो माईल दूर एक ही पर्वत था ,उनके ऊपर एक मंदिर था, स्कूल के समय के बाद कृष्णमूर्ति हर रोज वहां जाता था ,और साथ में भाई नित्यानंद को और मित्रों को भी ले जाता था |
कृष्णमूर्ति के पिता नारायणया चुस्त ब्राह्मण होते हुए भी 1882 से थियोसोफिकल सोसाइटी के सभ्य भी थे ,कृष्णमूर्ति की माता थियोसॉफिकल सोसायटी के अग्रणी नेता श्रीमती एनी बेसेंट के बारे में बहुत जानकारी रखती थी | और उनके विषय में कृष्णमूर्ति बीमारी के कारण स्कूल जा नहीं सकता था तब उनको बातें करती थी | घर में अन्य धार्मिक तस्वीरों के साथ एनीबेसेंट की तस्वीर भी रखी हुई थी |
कृष्णमूर्ति के पिता 52 वर्ष की आयु में महीने के रुपया 112 मासिक पेंशन के साथ 1907 में जब रिटायर हुए तब उन्होंने थियोसॉफिकल सोसायटी के पास के हेडक्वाटर्स मे पूर्ण समय की नौकरी के लिए श्रीमती एनिबेसंट को अरजी की थी|
जे.कृष्णमूर्ति एनी बेसंट के साथ
वह अर्जी में उन्होंने लिखा था कि वह विदुर है |उनको 4 पुत्र हैं एक बेटी है जिनकी शादी हो चुकी है | 5 साल का पुत्र सदानंद मानसिक तौर पर बीमार है ,उस समय सबसे बड़ा पुत्र शिवराम 15 साल का था ,कृष्णमूर्ति के पिता हेड कवाटर्स में रहने की सुविधा के बदले में नौकरी करने तैयार थे, परंतु एनिबेसन्टे उनकी विनंती को अस्वीकार किया था |फिर भी उन्होंने अपने प्रयत्न चालू रखें ,उन्नीस सौ आठ में सोसाइटी की कचहरी में एक नौकरी की जगह खाली हुई ,तब उनको पसंद किया गया | 23 जनवरी 1909 में हर दिन नारायणाय चार पुत्रों और एक भतीजा के साथ अडियार रहने के लिए आ गए ,कृष्णमूर्ति के सबसे बड़े भाई शिवराम दाक्तरी विज्ञान का अभ्यास करने के लिए प्रेसिडेंसी कॉलेज में जुड़ गए, और कृष्णमूर्ति नित्यानंद तथा भतीजे ने 3 माइल दूर मिलापोर की हाईस्कूल में दाखिला लिया ,छोटा सदानंद स्कूल जा नहीं सके ऐसी मानसिक स्थिति में था |
थियोसॉफिकल सोसायटी के कंपाउंड में रहने का घर ना मिल सके ऐसी परिस्थिति होने के कारण बाहर एक चोपड़ा बांधकर नाराणय्या बच्चों के साथ रहेने लगे | अंदर बाथरूम टॉयलेट की कोई सुविधा नहीं थी |नाराणय्या की विवाहित बहन उनके परिवार के साथ ससुराल में क्लेश होने के कारण साथ में रहने आ गई थी इसलिए थोड़ी राहत हुई, परंतु वह अच्छा खाना बना नहीं सकतिथि , अलबत यहां जो भी सुविधा थी ,उनसे बच्चे जीवित रह सकते थे |ये था भारत के एक महान बालक के जीवन की शुरुआत , जे.कृष्णमूर्ति के जीवन की रोमांचक घटनाओसे रूबरू होने के लिए “सत्य की शोध”के आने वाले एपिसोड ब्लॉग देखते रहिए |
नरेंद्र वाला
[विक्की राणा ]
‘सत्य की शोध’