‘9 मार्च के दिन बिखरे बोलिहुड सितारे’
जॉय मुखर्जी -अभिनेता,निर्माता ,निर्देशक
जॉय मुखर्जी सशधर मुखर्जी और सती देवी के पुत्र थे। इनके पिता एक सफल निर्माता और फिल्मिस्तान स्टूडियो के सह-संस्थापक थे। इनके चाचा सुबोध मुखर्जी निर्देशक हैं, जबकि मामा अशोक कुमार और किशोर कुमार थे। इनके भाई देब मुखर्जी और शोमू मुखर्जी हैं जिसकी शादी अभिनेत्री तनुजासे हुई थी। इनकी बेटियां काजोल और तनीषा मुखर्जी अभिनेत्रियां हैं। रानी मुखर्जी इनकी भतीजी है और उसका चचेरा भाई, अयन मुखर्जी जो इनका भतीजा है, निदेशक है।
आर.के. नय्यर द्वारा निर्देशित फिल्म लव इन शिमला (1960) में जॉय के साथ साधना की जोड़ी थी। जैसाकि मेरे पिता, आग़ाजानी कश्मीरी (उर्फ आग़ाजानी और कश्मीरी) ने एक कहानी सुनाई जिन्होंने लव इन शिमला के लिए पटकथा और संवाद लिखे और जॉय को इस भूमिका के लिए चुना. सशोधर, (सशधर भी कहलाते थे), उसके पिता, आगा जानी के एक करीबी दोस्त और नियोक्ता थे। एक शाम, जब दोनों स्कॉच व्हिस्की का दौर चलाते हुए लव इन शिमला में मुख्य भूमिका कौन निभाएगा इसपर चर्चा कर रहे थे, (सशोधर शम्मी कपूर को लेने को उत्सुक थे), आगा जानी की निगाहें जॉय पर थीं जो बंबई विश्वविद्यालय से अपनी पढाई कर घर आया था। उन्होंने लंबे और सुन्दर दिखने वाले युवक की ओर इशारा किया और कहा, “लो, यह रहा तुम्हारा हीरो.” सशोधर को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जॉय यह कर लेगा और उन्होंने आगा जानी से पूछा कि क्या वह जॉय को अभिनय की शिक्षा देने और उसकी भाषा एवं भाषण-शैली सिखाने का दायित्व ग्रहण करेंगे. आगा जानी इसपर सहमत हो गए। और बॉलीवुड को एक नया हीरो पेश किया गया। लव इन शिमला के बाद, इन्होने आशा पारेख के साथ फिर वही दिल लाया हूं और जिद्दी जैसी कई हिट फिल्मों में एक साथ काम किया। 60 वें दशक के अंतिम चरण में धर्मेंद्र जितेंद्र और राजेश खन्ना जैसे सितारों की लोकप्रियता में वृद्धि के साथ जॉय को भूमिकाएं मिलनी कम हो गईं.
जॉय ने तब हमसाया निर्मित और निर्देशित की लेकिन यह फिल्म अच्छी तरह नहीं चली और निर्माता या निर्देशक के रूप में इनकी बाद में आने वाली फिल्मों ने भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। अपने भाई देब मुखर्जी और शाली तनुजा के साथ घरेलू प्रोडकशन एक बार मुस्कुरा दो (1972) की सफलता के बावजूद जॉय फिल्म के दृश्य-पट से धूमिल होते चले गए। इनके निर्देशन में बनी जीनत अमान और खन्ना राजेश अभिनीत एक फिल्म छैल्ला बाबू के साथ इन्हें अंतिम सफलता मिली.
2009 में इन्होने टेलीविजन धारावाहिक “ऐ दिल-ए-नादान” में अभिनय किया।
के. आशिफ-[लेखक,निर्माता,निर्देशक]
के.आसिफ़ (14 जून 1922 – 9 मार्च 1971) एक भारतीय फ़िल्म निर्देशक ,फ़िल्म निर्माता तथा पटकथा लेखक थे। ये मुख्य रूप से 1960 में बनी मुग़ल-ए-आज़म के लिए जाने जाते है।वह उत्तर प्रदेश के इटावा में पैदा हुए थे। महज आठवीं जमात तक पढ़े थे। पैदाइश से जवानी तक का वक्त गरीबी में गुजारा था। फिर उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे बड़ी, भव्य और सफल फिल्म का निर्माण किया। यह इसलिए मुमकिन हुआ, क्योंकि उन्हें सिर्फ इतना पता था कि उनकी फिल्म के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा.हम बात कर रहे हैं फिल्म इंडस्ट्री के महान डायरेक्टर्स में से एक करीमुद्दीन आसिफ की, जिन्हें लोग के. आसिफ के नाम से जानते हैं और वह फिल्म थी ‘मुगल-ए-आजम’.आसिफ का जन्म 14 जून, 1922 को हुआ था और 9 मार्च, 1971 को वह इस दुनिया से रुख्सत हो गए।
हरी शंकर शर्मा [लेखक]
हरिशंकर शर्मा ,जन्म- 19 अगस्त, 1891, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 9 मार्च, 1968) भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार, कवि, लेखक, व्यंग्यकार और पत्रकार थे। उन्हें उर्दू, फ़ारसी, गुजराती तथा मराठी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। पंडित हरिशंकर शर्मा हिन्दी के कुछ गिने चुने हास्य लेखकों में से एक थे। इनकी गिनती अपने समय के उच्च कोटि के पत्रकारों में होती थी। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का सफल सम्पादन किया था। अपनी रचनाओं के माध्यम से हरिशंकर शर्मा समाज में फैली रूढ़ियों, कुरीतियों तथा अन्य बुराइयों पर करारी चोट करते थे।
देविका रानी [अभिनेत्री]
देविका रानी (जन्म: 30 मार्च, 1908 निधन: 8 मार्च, 1994) हिन्दी फ़िल्मों की एक अभिनेत्री हैं। निःसंदेह भारतीय सिनेमा के लिये देविका रानी का योगदान अपूर्व रहा है और यह हमेशा हमेशा याद रखा जायेगा। जिस जमाने में भारत की महिलायें घर की चारदीवारी के भीतर भी घूंघट में मुँह छुपाये रहती थीं, देविका रानी ने चलचित्रों में काम करके अदम्य साहस का प्रदर्शन किया था। उन्हें उनके अद्वितीय सुंदरता के लिये भी याद किया जाता रहेगा।
देविका रानी, भारतीय रजतपट की पहली नायिका, का जन्म वाल्टेयर (विशाखापत्तनम) में हुआ था। वे विख्यात कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर के वंश से सम्बंधित थीं, श्री टैगोर उनके चचेरे परदादा थे। देविका रानी के पिता कर्नल एम॰एन॰ चौधरी मद्रास (अब चेन्नई) के पहले ‘सर्जन जनरल’ थे। उनकी माता का नाम श्रीमती लीला चौधरी था।
स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के बाद 1920 के दशक के आरंभिक वर्षों में देविका रानी नाट्य शिक्षा ग्रहण करने के लिये लंदन चली गईं और वहाँ वे ‘रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट’ (RADA) और रॉयल ‘एकेडमी ऑफ म्युजिक’ नामक संस्थाओं में भर्ती हो गईं। वहाँ उन्हें ‘स्कालरशिप’ भी प्रदान किया गया। उन्होंने ‘आर्किटेक्चर’, ‘टेक्सटाइल’ एवं ‘डेकोर डिजाइन’ विधाओं का भी अध्ययन किया और ‘एलिजाबेथ आर्डन’ में काम करने लगीं।
अध्ययन काल के मध्य देविका रानी की मुलाकात हिमांशु राय से हुई। हिमांशु राय ने देविका रानी को लाइट ऑफ एशिया नामक अपने पहले प्रोडक्शन के लिया सेट डिजाइनर बना लिया। सन् 1929 में उन दोनों ने विवाह कर लिया। विवाह के बाद हिमांशु राय को जर्मनी के प्रख्यात यू॰एफ॰ए॰ स्टुडिओ में ‘ए थ्रो ऑफ डाइस’ नामक फिल्म बनाने के लिये निर्माता का काम मिल गया और वे सपत्नीक जर्मनी आ गये।
भारत में भी उन दिनों चलचित्र निर्माण का विकास होने लग गया था अतः हिमांशु राय अपने देश में फिल्म बनाने का विचार करने लगे और वे देविका रानी के साथ स्वदेश वापस आ गये। भारत आकर उन्होंने फिल्में बनाना शुरू कर दिया और उनकी फिल्मों में देविका रानी नायिका का काम करने लगीं। सन् 1933 में उनकी फिल्म कर्मा प्रदर्शित हुई और इतनी लोकप्रिय हुई कि लोग देविका रानी को कलाकार के स्थान पर स्टार सितारा कहने लगे| इस तरह देविका रानी भारतीय सिनेमा की पहली महिला फिल्म स्टार बनीं।
देविका रानी और उनके पति हिमांशु राय ने मिलकर बांबे टाकीज़ स्टुडिओ की स्थापना की जो कि भारत के प्रथम फिल्म स्टुडिओं में से एक है। बांबे टाकीज़ को जर्मनी से मंगाये गये उस समय के अत्याधुनिक उकरणों से सुसज्जित किया गया। अशोक कुमार, दिलीप कुमार, मधुबाला जैसे महान कलाकारों ने बांबे टाकीज़ में काम कर चुके है। अछूत कन्या, किस्मत, शहीद, मेला जैसे अत्यंत लोकप्रिय फिल्मों का निर्माण वहाँ पर हुआ है। अछूत कन्या उनकी बहुचर्चित फिल्म रही है क्योंकि वह फिल्म एक अछूत कन्या और एक ब्राह्मण युवा के प्रेम प्रसंग पर आधारित थी|
सन् 1940 में देविका रानी विधवा हो गईं। बांबे टाकीज का सम्पूर्ण संचालन उनके पति हिमांशु राय किया करते थे। देविका रानी ने अपने स्टुडिओ बांबे टाकीज़ के संचालन के लिये जी जान लड़ा दिया परंतु सन् 1943 में सशधर और अशोक कुमार तथा अन्य विश्वसनीय लोगों के स्टुडिओ से नाता तोड़ लेने की वजह से वे असहाय हो गईं। उन लोगों ने बांबे टाकीज़ से सम्बंध समाप्त करके फिल्मिस्तान नामक नया स्टुडिओ बना लिया। परिणामस्वरूप देविका रानी को फिल्मों से अपना नाता तोड़ना पड़ा| उन्होंने रूसी चित्रकार स्वेतोस्लाव रॉरिक के साथ सन् 1945 में विवाह कर लिया और बंगलौर में जाकर बस गईं।
देविका रानी का अंतिम संस्कार सम्पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ किया गया था।
अख्तरुल ईमान [उर्दू नज़्म शायर]
आधुनिक उर्दू नज़्म के संस्थापकों में शामिल। अग्रणी फ़िल्म-संवाद लेखक। फ़िल्म ‘ वक़्त ‘ और ‘ क़ानून ‘ के संवादों के लिए मशहूर। फ़िल्म ‘वक़्त’ में उनका संवाद ‘ जिनके घर शीशे के हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते ‘ , आज भी ज़बानों पर है | उपनाम :‘अख़्तर’ मूल नाम :अख़्तर-उल-ईमान जन्म :12 Nov 1915 | बिजनौर, उत्तर प्रदेश निधन :09 Mar 1996 , पुरस्कार :साहित्य अकादमी अवार्ड(1962)
अख़तरुल ईमान उर्दू नज़्म के नए मानक स्थापित करने वाले अद्वितीय शायर हैं जिनकी नज़्में उर्दू अदब के धरोहर का अमूल्य हिस्सा हैं। उन्होंने उर्दू शायरी की लोकप्रिय विधा ग़ज़ल से किनारा करते हुए सिर्फ़ नज़्म को अपने काव्य अभिव्यक्ति का ज़रिया बनाया और एक ऐसी ज़बान में गुफ़्तगु की जो शुरू में,उर्दू शायरी से दिलचस्पी रखने वाले तग़ज़्ज़ुल और तरन्नुम आश्ना कानों के लिए खुरदरी और ग़ैर शायराना थी लेकिन वक़्त के साथ यही ज़बान उनके बाद आने वालों के लिए नए विषयों और अभिव्यक्ति की नए आयाम तलाश करने का हवाला बनी। उनकी शायरी पाठक को न तो चौंकाती है और न फ़ौरी तौर पर अपनी गिरफ़्त में लेती है बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता, ग़ैर महसूस तरीक़े पर अपना जादू जगाती है और स्थायी प्रभाव छोड़ जाती है। उनके चिंतन को भ्रम या कैफ़ आवर ग़िनाइयत के दायरे तक सीमित नहीं किया जा सकता था, इसीलिए उन्होंने अभिव्यक्ति का वो ढंग अपनाया जो ज़्यादा से ज़्यादा संवेदी, भावनात्मक, नैतिक और सामाजिक अनुभवों का समावेश कर सके। यही वजह है कि मौज़ूआत,एहसासात और अनुभवों की जो विविधता अख़तरुल ईमान की शायरी में मिलती है वो उनके दूसरे समकालीन शायरों के यहाँ नहीं है।
उनकी हर नज़्म भाषा, शब्दावली, लब-ओ-लहजा और सामंजस्य की एक नई प्रणाली का परिचय देती है। अख़तरुल ईमान के लिए शायरी एक ज़ेहनी तरंग या तफ़रीही मशग़ला नहीं था। अपने संग्रह “यादें” की भूमिका में उन्होंने लिखा, “शायरी मेरे नज़दीक क्या है? अगर मैं इस बात को एक लफ़्ज़ में स्पष्ट करना चाहूँ तो मज़हब का लफ़्ज़ इस्तेमाल करूँगा। कोई भी काम, जिसे इंसान ईमानदारी से करना चाहे, उसमें जब तक वो लगन और तक़द्दुस न हो जो सिर्फ़ मज़हब से वाबस्ता है, इस काम के लिए अच्छा होने में हमेशा शुबहा की गुंजाइश रहेगी।” शायरी अख़तरुल ईमान के लिए इबादत थी और उन्होंने शायरी की नमाज़ कभी जमाअत के साथ नहीं पढ़ी। जिन शायरों के यहां उनको इबादत समझ कर शायरी करने की विशेषता नहीं मिली, उनको वो शायर नहीं बल्कि महज़ बैत साज़ समझते थे। मजाज़, मख़दूम, फ़ैज़ और फ़िराक़ को वो किसी हद तक शायर मान लेते थे लेकिन बाक़ी दूसरों की शायरी उनको रचनात्मक कविता से बाहर की चीज़ नज़र आती थी।
9 मार्च 1996 को दिल की बीमारी से उनका निधन हो गया और इसी के साथ उर्दू नज़्म अपने एक महान सपूत से महरूम हो गई। अख़तरुल ईमान ने अपने अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में काव्य भाषाविज्ञान के समस्त उपस्थित तत्वों को आज़माने के बजाय उन्होंने स्पष्ट और वास्तविक भाषा उपयोग कर के दिखा दिया कि शे’र कहने का एक अंदाज़ ये भी है। उनकी शायरी पाठक से अपने पठन की ही नहीं अपनी सुनवाइयों की भी प्रशिक्षण का तक़ाज़ा करती है।
सतीश कौशिक [अभिनेता,लेखक,निर्माता, निर्देशक]
सतीश कौशिक का जन्म 13 अप्रैल 1956 को महेंद्रगढ़, हरियाणा में हुआ था। उन्होंने 1972 में किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक किया। वह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और भारतीय फिल्म और टेलिविज़न संस्थान पुना के पूर्व छात्र थे।उनका विवाह 1985 में शशि कौशिक से हुआ था। उनके बेटे शानू कौशिक की 1996 में मृत्यु हो गई जब वह सिर्फ दो साल के थे। 2012 में, उनकी बेटी वंशिका का जन्म सरोगेट माता के माध्यम से हुआ है।
दिल का दौरा पड़ने के कारण 09 मार्च 2023 को गुरुग्राम में 66 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। फिल्म इंडस्ट्रीज में उनके मित्र अनुपम खेर ने उनकी मृत्यु की खबर की घोषणा की। अपने आखिरी इंस्टाग्राम पोस्ट में, उन्हें आखिरी बार जावेद अख्तर, शबाना आज़मी के घर अली फज़ल, ऋचा चड्ढा और महिमा चौधरी के साथ होली 2023 मनाते हुए देखा गया था।
सतीश कौशिक अपने अभिनय के जरिये ढेर सारी फिल्मोंमे अपनी एक अलग छाप छोड़ी है | हरियाणा मे वो फिल्म इंडस्ट्रीज स्थापित करनेका प्रयास कर रहे थे ऐसा प्रमाण फिल्मी लोगो से मिलता है | सतीशजी का वो सपना अधूरा रेह गया है ,आशा करते है सरकार उनके योगदान को देखते हुए उनके परिवार को सपोर्ट करके यह सपना पूरा करेंगे |बोलिहुड फिल्मों मे केलेंडर और पप्पू पेजर के किरदार को निभाकर वो दर्शको के दिलो दिमाग मे छा गए थे | जिनको लोग कभी भी भूलेंगे नहीं | सतीश जी एक ज़िंदादिल इंसान थे , सतीश जी के दोस्त भाईजान सलमान खान की आखे भी अश्रु बहाने से रुकी नहीं है | एक ज़िंदादिल दोस्त,अभिनेता ,लेखक,निर्देशक , निर्माता , बहू रंगी प्रतिभा को भारतीय इंडस्ट्रीज ने आज खोया है | जिनका हमे भी बहुर दुख है | आज के दिन जीतने भी सितारे इस जहा से बिखरे है उन सभी को ‘सत्य की शोध’ की टीम भावपूर्व श्रद्धांजली देती है |
“सतीश कौशिक जी की आखरी होली की यादगार तशवीर”
नरेंद्र वाला
[विक्की राणा]
‘सत्य की शोध’