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भारतीय फिल्म जगत के जन्मदाता-पितामह दादा साहेब फाल्के की दर्दीली दास्ता

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   नमस्कार ,

                 भारतीय फिल्म जगत के जन्मदाता दादा साहब फाल्के

               मुक फिल्मों के जमाने में एक दर्शक को किसी शब्दकार का साथ लेने की कोई जरूरत न थी| यही नहीं, तब फिल्मकार दिग्दर्शक हरफनमौला भी हुआ करता था | इसलिए यह परंपरा बनी कि जिस के दिग्दर्शक की देखरेख में शूटिंग और संपादन का काम हुआ हो | वही फिल्म का रचियता माना जाए ,बोलपट के आगमन के बाद भी स्थिति में कोई अंतर नहीं आया, हालांकि अब संवादो का भी उतना ही महत्व हो गया जितना कि बींबो का | यही नहीं, पटकथा लेखक फिल्म माध्यम की इतनी समझ रखने लगे कि उपर्युक्त बिंब भी सुजाते चले , और अपने निर्देश  इस तरह लिखे कि उसमें शॉट डिवीज़न साफ उजागर हो रहा हो| इसके बावजूद दिग्दर्शक- बनाम लेखक की बहस शुरू नहीं हुई |

          बहस शुरू न होने की वजह यह थी कि व्यवसायिक बोलपट में सबसे ज्यादा महत्व निर्माता का ही था | निर्माता के सामने दिग्दर्शक की कोई खास नहीं चलती थी |लेखक की तरह दिग्दर्शक भी एक भाड़े में लिया गया आदमी हुआ करता था | कुछ निर्माता तो दिग्दर्शक से यहां तक कह देते थे कि तुम्हारा काम बस शूटिंग करा देना है, हर दृश्य को शुद्ध करते समय उसका मास्टर शॉट ले लिया करो .. और अलग-अलग क्लोज शार्ट भी ले लिया करो  बाकी संपादन के साथ बैठकर संभाल लेंगे | तो दिग्दर्शक भी एक उपेक्षित प्राणी था , भले ही उतना नहीं जितना लेखक| इसलिए उनमें लड़ाई होने की नौबत नहीं आई |

             लेकिन जब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप मे व्यवसायिककी परिधि से परे सिनेमा की नई लहर शुरू हुई, तब दिग्दर्शक को वैसा ही महत्व दिया जाने लगा जैसा मुक फिल्मों  के दौर में प्राप्त था| फ्रांस में नई लहर के सिनेमा से जुड़े बुद्धिजीवियों ने हॉलीवुड की व्यावसायिक फिल्मों का विश्लेषण करके, सिद्ध किया कि हिचकॉक जैसे दिग्दर्शक मात्र दिग्दर्शक नहीं, ‘ओत्यूर’ यानी फिल्म के रचयिता है| भले ही फिल्म के निर्माण के बहुत से लोगों का योगदान रहता था ,इन बुद्धिजीवियों ने स्थापना की की फिल्म दिग्दर्शक की रचना होती है| इस प्रकार नहीं लहर के उठने के बाद कलात्मक सिनेमा के साथ-साथ व्यवसायिक सिनेमा में भी दिग्दर्शक का महत्व बड़ा और वह भी उतना ही चर्चित हो चला जितना कि निर्माता और अभिनेता अभिनेत्री हुआ करते थे| उनके परिश्रमिक में  भी बहुत वृद्धि हुई| उसे पहले ‘डायरेक्टर बाई’ का क्रेडिट दिया जाता था | ‘अ फिल्म बाई ‘ का दर्जा दिया जाने लगा| व्यावसायिक सिनेमा में भी दिग्दर्शक को एकमात्र रचियता का दर्जा मिल गया| इसके साथ ही शुरू हो गई लेखक बनाम दिग्दर्शक वाली बहस |

            इस सिलसिले में पटकथा लेखकों ने कुछ तथ्यों की ओर ध्यान दिलाया| पहला यह कि बोलती फिल्मों में संवादो का भी उतना ही महत्व है, जितना कि बिम्बो का| दूसरा यह कि कुशल पटकथा कार सिनेमाई भाषा का                                                                                                                                                                                                                जानकार होता है| इसलिए लिखते समय स्वयं संभावित शक्तिशाली बिंबो की ओर इशारा करता जाता है| वह किस| इसलिए पटकथा लिखते समय वह उस जानकारी का पूरा उपयोग करता है| तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि ज्यादातर पटकथा पहले लिखी जा चुकी होती है, एक दशक बाद में तय होता है| अर्थात फिल्म की संपूर्णता में परिकल्पना करने वाला पहला व्यक्ति लेखक होता है, दिग्दर्शक नहीं|

             लेखकों के प्रवक्ताओं ने यह भी कहा की फिल्म का निर्माण पूरी टीम करती है |और दिग्दर्शक की हैसियत वही होती है| जो किसी टीम के कप्तान की हो सकती है| सामूहिक प्रयास से बनने वाली फिल्म का किसी को भी ओत्यूर  नहीं कहा जा सकता|  लेकिन अगर यह श्रेय किसी को देना ही हो तो उधर यानि लेखक को दिया जाना चाहिए| उन्होंने इस ओर ध्यान दिलाया कि मशहूर से मशहूर दर्शकों की फिल्मों की रंगत उनके लेखक के हिसाब से बदलती रहती है| यही नहीं, एक ही लेखक की पटकथा पर अलग-अलग दिग्दर्शक को द्वारा बनाई गई फिल्मों की रंगत एक सी है| उन दुनिया पर, उसे लेखक तैयार करता है| लेखक ही होता है जो प्रस्तावित फिल्म के बारे में सबसे पहले सोचता है| उस| इस वजह से और सनवेल्स जैसे कई मशहूर दर्शकों ने भी लेखक का पक्ष लिया| उन्होंने कहा कि फिल्म का सारा दारोमदार पटकथा पर ही होता है | 

             इस बहस से छिड़ने के बाद सिर्फ इतना हुआ, कि हॉलीवुड में लेखक का महत्व और पेमेंट थोड़ा सा बढ़ गया| नए पुराने लेखको की अच्छी पटकथा खरीदने के लिए निर्माताओकी होड लगी | हमारे यहां भी सलीम जावेद की जोड़ी ने फिल्मों में लेखक का महत्व अकाट्य रूप से सिद्ध करके, लेखकों का पारिश्रमिक बढ़वाया |

            बहरहाल हॉलीवुड हो या बॉलीवुड, आज भी फिल्म उध्योग मे दिग्दर्शक का स्थान लेखक से अधिक महत्वपूर्ण है | लेखक पुराना हो, दिग्दर्शक नया तो भी बात दिग्दर्शक की ही चलती है| ऐसे अनेक अवसर आते हैं कि लेखक को शिकायत होती है, कि दिग्दर्शक में सब गुड- गोबर करके रख दिया| यो कभी-कभी लेखक और दिग्दर्शक की नोकझोंक से अंततः कोई बढ़िया चीज भी निकल आती है|

             अमेरिकी लेखक व्यवसायिक सिनेमा की आवश्यकताओं के अनुसार अंत में खलनायक का कुछ तो बुरा होता हुआ दिखाना चाहता था जबकि यूरोपीय दिग्दर्शक अधिक यथार्थवादी नजरिए से यह कह लाना चाहता था कि राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली खलनायक का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि समूची व्यवस्था ही भ्रष्ट है| इसलिए उसने अंत बदल दिया| वजह के बाद लेखक ने दोनों की बात रखते हुए ऐसा अंतर लिखा जो यथार्थवादी होने के साथ-साथ नौटकी भी था वह फिल्म थी चाइना टाउन|

               फिल्मों के पटकथा के बुनियादी महत्व को समझते हुए लगभग सभी बड़े दिग्दर्शक पटकथा खुद लिखना पसंद करते हैं और लेखक से केवल संवाद लिख पाते हैं| इसी तरह फिल्म तकनीक की अच्छी समझ रखने वाले लेखक स्वयं ही दिग्दर्शक भी करने लगते हैं| अक्सर यह भी देखा जाता है कि दिग्दर्शक अपनी पसंद के किसी लेखक के साथ जोड़ी बना लेते हैं और या तो पटकथा लिखने में सहयोग करते हैं, 

    शूटिंग दिग्दर्शक के निर्देशन में होती है|  इसलिए यह लेखक की सरासर हिमाकत मानी जाएगी कि वह पटकथा में शूटिंग के लिए भी निर्देश दें| बाकायदा अधिक दर्शक को बताया कि इस सीन को कितने शॉट ओं में तोड़कर शूट करें? और कौन के? यह दिग्दर्शक का काम है और उसी पर छोड़ देना चाहिए| आप, पात्रों की गतिविधियों  का पूरा ब्यौरा दीजिए लेकिन यह न बताइए कि कैमरा कहां रखा जाए और उससे क्या  फिल्माया जाए| आपके ऐसा करने से कोई भी दिग्दर्शक ही देगा| सीधे गा रा कि| उन्हें बस इतना उपेक्षित था की कहानी और संवाद साहित्यिक ढंग से लिख कर दे दिए जाए|

       तो इसका मतलब क्या यह है कि पटकथा लेखक सिनेमा की भाषा की जानकारी दिखाइए ही नहीं? इसका जवाब यह है कि वह जानकारी दिखाएं नहीं मगर लिखे इस तरह कि साफ दिखाई दे कि वह इस माध्यम का जानकार है| वह अपना वर्णन इस तरह लिखे कि शॉट का सुझाव उसी में निहित हो| मैं उदाहरण के लिए बॉनी एंड क्लाइड नामक मशहूर फ़िल्म का एक छोटा सा हिस्सा आपके सामने रखता हूं जो सीन  उद्धृत किया जा रहा है उससे पिछले सीन में क्लाइड बोनी को बाहर गाड़ी में छोड़कर एक बैंक को लूटने के लिए भीतर घुसता है जहां खजांची उसे बताता है कि यह बैंक तो दिवालिया हो चुकी है आगे देखें,,,,,,,

बाहर/ /बेंक/दिन 

बोनी कार में भयभीत बैठी होती है कि उसे क्लाइड और खजांची आते दिखाई देते हैं| वह समझ नहीं पाती है कि यह क्या हो रहा है?

 क्लाइड:  [खजांची को आगे धकीयाते हुए ] इसे बता -इसे बता |

खजांची:  [किसी ऐसे व्यक्ति का सा व्यवहार करते हुए जिसकी नींद पागलों ने खराब कर दी हो] देवी जी, जैसा कि मैं इन महाशय को बता रहा था, हम दिन| उसके पास अब जरा भी पैसा नहीं है| मुझे इसका बेहद अफसोस है|

[ सुनकर बोनी को बहुत राहत महसूस होती है और साथ ही सारी स्थिति बड़ी हास्यास्पद मालूम होती है| वह जोर से हंसती हैं और हस्ती चली जाती है| इस प्ले क्लाइंट| वह बेचारे खजांची को जमीन पर पटक देता है]

             आप गौर करेंगे कि डेविड न्यूमैन और रॉबर्ट बेनटेन की जोड़ी ने अपनी इस बहू पुरस्कृत कथा में कहीं यह नहीं लिखा है कि कौन सा शॉट लिया जाए? लेकिन पढ़ने से ही पता चलता है कि वह कैमरा कहीं जाता देख रहे हैं? शुरू में कैमरा बोनी प्रकार पर है, फिर बोनी के पीओवी बैंक से बाहर आते क्लाइड और खजांची पर है फिर संवाद बोलते हुए खजांची पर है फिर रिएक्ट करती हुई बोनी पर है फिर बोनी की हंसी पर यह करते हुए और खजांची को फटते हुए फ्लाइट पर है|

       ऊपर दिया गया उदाहरण ऐसा है जिससे किसी दिग्दर्शक को कोई तकलीफ नहीं होगी| हॉलीवुड में कुछ पुराने पटकथा लेखक हाशिए पर एक दो तीन आधी संख्या लिखकर यह बताते जाते हैं कि हम शॉट का कहां बदला जाना पसंद करेंगे| कुछ ऐसे हैं जो अब भी शूटिंग स्क्रिप्ट के हिसाब से अपने दृश्य  के बीच भी कई बार ‘कट’ शब्द का प्रयोग करते हैं की डायरेक्टर यही शॉर्टकट करें वह दूसरा शार्ट ले| प्रसिद्ध लेखक विलियम गोल्डमैन भी उन्ही में से है| ‘बूच कसिडी एंड संडान्स किस ‘नामक जिस फिल्म की पटकथा पर गोल्डमैन को एप्स ऑस्कर अवार्ड मिला था | शुरुआत मुलाहिजा हो|

 भीतर/सैलून/दिन 

कैमरा एक मछंदर आदमी के क्लोजअप से पीछे आता है और हम देखते हैं कि हम एक बड़े खाली से  जुआ घर में है, जिसमें मछंदर नामका आदमी  पत्ते बांटता है | 

                                                                     कट टू 

                              मछंदर आदमी एक जुवारी को पत्ते देता है, वह पत्ते देख कर कहता है

जुआरी:   एक पत्ता और |

                                       [ मछंदर गड्डी का सबसे ऊपर का पता दे देता है]

जुआरी:  हां…    

                        [जुआरी पता फेंककर कुर्सी पीछे करते होगे उठता है| हिचकता है [फिर ]

जुआरी : मिस्टर मैंकौन ,उधारी चलेगी ?

                                                                कट टू 

       सैलून का मालिक मैंकौन, जो बहुत अच्छे कपड़े पहना हुआ चुस्त तंदुरुस्त आदमी है, अभी 30 का भी नहीं हुआ है लेकिन बहुत सयाना और ताकतवर मालूम होता है| उसने बहुत ऊंच-नीच देखी है और संघर्ष करके ऊपर आया है|  और नपी तुली बातचीत करता है| 

मैंकौन : [ सिर हिलाकर] तुम्हें मेरे उसूल पता है टॉम |

            [अब मैं कौन मूछंदर की और देखता है]

मैंकौन :  भैया, तुमने तो यहां हर किसी की जेब काट ली } जब से तुमने पत्ते बांटने शुरू किए हारे नहीं |

    

                                                          कट tटू 

                                        [मछंदर निर्विकार बना रहता है]

                                                          कट

                                     [मैंकौन आखे  सवालिया बनाता है]

मैकौन : तुम्हारी कामयाबी का राज क्या है ? 

                                                      कट टू 

मूछंदर :  प्रभु कृपा |

                                                      कट टू

                              [मैंकौन मुस्कुराता नहीं है और उठते हुए कहता है -]

मैंकौन :  एक बार जरा मेरे साथ खेल कर देखें | 

                                                    कट टू    

                                    [मछंदर दास फेटता बांटता है ]

            आपने देखा कि इसमें गोल्डमैन ने बाकायदा शार्ट डिवीजन कर दिया है| प्रसंग वश शूटिंग स्क्रिप में वहां वहां कट लिखना पड़ता है जहां-जहां शॉट खत्म होता है | आम कट कट सेवर लिख| गोल्डमैन का लिखा हुआ यह दृश्य आपको हॉलीवुड के एक और अनुकरणीय रिवाज से परिचित कराता है| वह यह कि पटकथा में जब भी किसी पात्र का पहली बार जिक्र आए तब वहां संक्षेप में उसका बाहरी और भीतरी चरित्र चित्रण भी कर दिया जाए | ऊपर दिए हुए दोनों उदाहरणों से इस परंपरा का भी पता चलता है कि दृश्य में पात्र की मना स्थिति का वर्णन करते जाना चाहिए |

                   हॉलीवुड में जहां कुछ लोग गोल्डमैन की तरह पूरी शॉट डिवीज़न ही कर देते हैं |और कुछ डेविड  न्यूमैन और बेनटेन की जोड़ी की तरह शार्ट की चर्चा ही नहीं करते | वहां ज्यादातर लोग मध्य मार्ग अपनाते हुए ‘एंगलऑन’ ‘रिवर्स एंगल’ ‘पीओवी’ ‘टू शॉर्ट’ ‘थ्रि शॉट’  ‘अनादर एंगल’ ‘मुविंग शॉट’ ‘इन्सर्ट’  ‘कट अवे’ ‘फेवरिंग’ जैसी शब्दावली ही इस्तेमाल करते हैं | जो दिग्दर्शक को आपत्तिजनक नहीं लगती | उससे उन्हें सुझाव भर मिलता है, निर्देश नहीं | 

              जहां तक बॉलीवुड का सवाल है, आपको नेक सलाह दी जाती है कि न्यूमैन और बेनटेन की जोड़ी वाला रास्ता अपनाएं और दिग्दर्शक के क्षेत्र में घुसने की जरा भी चेष्टा ना करें | हमारे यहां तो टेलीविजन तक में दिग्दर्शक को लेखक से महत्वपूर्ण माना  जा रहा है जबकि हॉलीवुड मैं लेखक को ही टेलीविजन धारावाहिकों मैं ‘क्रीटेड बाय’ का क्रेडिट दिया जाता है | और अक्सर उसकी भूमिका निर्माता की भी होती है | तो मैं आपसे यही कहूंगा कि अगर आप दृश्य श्रव्य माध्यम में जाना चाहते हैं तो सिनेमा और टेलीविजन की अपनी भाषा पर भी जरूर अधिकार प्राप्त करें | लेकिन दिग्दर्शक को ऐसा न लगने दें कि आप उस का दिग्दर्शन करना चाहते हैं | अगर आपको दिग्दर्शन का इतना ही शौक हो तो मात्र लेखक की बजाय लेखक- दिग्दर्शक बनने की कोशिश  करें |  हॉलीवुड में लेखक से दिग्दर्शक बन जाने की बात बहुत आम हो चली है और अब बॉलीवुड में भी लेखकों को दिग्दर्शक करने का मौका मिलने लगा | हॉलीवुड में तो कहीं तरुण लेखक अब निर्माताओं से यह कहने लगे हैं कि मैं अपनी पता था इसी शर्त पर भेजूंगा कि आप फिल्म का देख दर्शक भी मुझे ही करने दे |  उधर वह व्यावसायिक  दिग्दर्शक भी अपनी पटकथा खुद लिखने लगे हैं | अब आगे बढ़ी है लेखक दिग्दर्शक बनने की ओर |

       सत्य की शोध में आगे और भी ऐसे ही रोमांचक फिल्मी दुनिया के क्रिएशन के बारे में आपके सामने लाए जाएंगे ,  धन्यवाद ||

  नरेंद्र वाला 

[विक्की राणा] 

‘सत्य की शोध’

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